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482 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
या अधिकार प्राप्त आचार्य आदि पदस्थ मुनि इन विधि-विधानों को सम्पन्न करवा सकते हैं। इसमें विधि शुद्धि और आचार शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है।
इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में ऐसा उल्लेख हैं कि संकलनकर्त्ता आचार्य कल्याणसागरसूरि सत्ताईस वर्षों तक प्रतिष्ठा सम्बन्धी विविध जानकारियाँ प्राप्त करते रहे और कई प्रकार के अनुभव लेते रहे, उसकी यह फलश्रुति है । इस कृति की प्रस्तावना और परिशिष्ट पढ़ने जैसे हैं।
प्रस्तुत कृति में प्रतिष्ठा संबंधी विधि-विधानों का जो क्रम दिया गया है उनका क्रमपूर्वक नाम निर्देश इस प्रकार है -
१. प्रतिष्ठाचार्य गुरु का स्वरूप २. प्रतिष्ठा मंडप निर्माण विधि ३. पीठिका निर्माण विधि ४. दैनिक कृत्य विधि ५. प्रथमदिन - जलयात्रा विधि ६. द्वितीय दिन- कुंभस्थापना विधि ७. तृतीय दिन - अखण्ड दीपकस्थापना विधि, श्री मणिभद्र यक्षेन्द्र प्रमुख देव-देवी अवतरण विधि, नन्द्यावर्त्त आलेखन विधि, नन्द्यावर्त्त पूजन विधि ८. चतुर्थ दिन - दशदिक्पाल, नवग्रह, अष्टमंगल पूजन विधि ६. पंचम दिनसिद्धचक्र पूजन विधि १० षष्ठम दिन- श्री विंशतिस्थानक पूजन विधि ११. सप्तम दिन- इन्द्र महाराज स्थापन विधि, महाराजाधिराज स्थापन विधि, च्यवनकल्याणक विधि १२. अष्टम दिन - जन्म कल्याणक पूजन विधि १३. नवम् दिन- श्री अष्टादश अभिषेक विधि १४. दशम् दिन - लेखनशाला, लग्नविधि, राज्याभिषेक विधान १५. एकादशतम दिन - दीक्षाकल्याणक विधि, अधिवासना विधि १६. द्वादशतम दिन - अंजनशलाका प्रतिष्ठा विधि, निर्वाणकल्याणक विधि, विर्सजन विधि १७. संक्षिप्त प्रतिष्ठा विधि १८. जिनबिम्ब परिकर प्रतिष्ठा विधि १६. कलशारोपण विधि, २०. ध्वजारोपण विधि २१. लूण उतारण, मंगलदीपक, आरती और शान्तिकलश विधि
इस कृति का परिशिष्ट भाग अन्य प्रतिष्ठा विधि सम्बन्धी कृतियों से बहुत कुछ हटकर है। प्रथम परिशिष्ट में षोडशक प्रकरण ( हरिभद्रसूरि ) से छठा जिन संबंधी, सातवाँ जिनप्रतिमा सम्बन्धी, आठवाँ प्रतिष्ठा संबंधी ये तीन षोडशक लिये गये हैं। द्वितीय परिशिष्ट में स्तव परिज्ञा और प्रतिष्ठा संबंधी पंचवस्तुक ( हरिभद्रसूरि ) की ११११ से १३२२ तक की गाथाएँ दी गई हैं।
निष्कर्षतः प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रतिष्ठा संबंधी विधि-विधानों का जो क्रम दिया गया है वह अन्य प्रतिष्ठाकल्पों से तुलना करने योग्य हैं। इसका प्रथम भाग हमें प्राप्त नहीं हुआ है।
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