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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/575
पंचम मंत्रराजपीठ की साधना विधि- इस कृति में निर्देश हैं कि पंचम पीठ की साधना करने वाला साधक (आचार्य) तीसरे भव में मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है तथा इहलोक में गौतमस्वामी के समान पूजनीय बनता है। इसी क्रम में पाँच पीठों के नान्दी पदों को सिद्ध करने पर होने वाला आध्यात्मिक फल बताया गया है कि प्रथम पीठ का स्मरण करने से मतिज्ञान होता है, द्वितीय पीठ की साधना करने से चौदह पूर्वधारी होता है, तृतीय पीठ की आराधना करने से अवधि ज्ञानी होता है, चतुर्थ पीठ की उपासना करने से मनःपर्यवज्ञानी बनता है और पंचम पीठ की आराधना करने से केवलज्ञानी बनता है। बशर्ते यह जाप ब्रह्मचर्य व्रत के पालन पूर्वक एवं पाँच लाख की संख्या में होना चाहिए। सूरिमन्त्र (पंचपीठ) की तपसाधना विधि- प्रस्तुत कृति में पंच पीठ की तप साधना विधि, तप दिन आदि भी उल्लिखित हैं। इसमें कहा हैं कि प्रथम पीठ की तप साधना में २१ दिन, द्वितीय पीठ की तप साधना में १३ दिन, तृतीय पीठ की तपसाधना में २५ दिन, चतुर्थ पीठ की तपोसाधना में ८ दिन और पंचम पीठ की तपसाधना में १६ दिन लगते हैं। सरिमन्त्र (पंच पीठ) के अधिष्ठायक (देव-देवियों) के नाम- इसमें पांच पीठों के अधिष्ठायकों के नाम भी बताये गये हैं - प्रथम विद्यापीठ की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती है द्वितीय महाविद्यापीठ की अधिष्ठात्री देवी त्रिभूवनस्वामिनी हैं, तृतीय उपविद्यापीठ की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी है, चतुर्थ मंत्रपीठ के अधिष्ठायक देव सोलह हजार यक्षों के स्वामी यक्षराज है। पंचम मंत्रराजपीठ के अधिष्ठायक श्री गौतमस्वामी है। इस कृति के अन्तिम भाग में जिनप्रभसूरि ने अपने संप्रदाय के अनुसार सूरिमंत्र का उल्लेख करते हुए पाँचपीठ की साधना विधि का निरूपण किया है जो आराधना की दृष्टि से अत्यधिक उपयोगी हैं। सूरिमन्त्र (पंच पीठ) की साधना विधि में प्रयुक्त मुद्राएँ- सामान्यतया सूरिमन्त्र की साधना करते समय विविध प्रकार की मुद्राओं का प्रयोग होता है। जिनप्रभसूरि ने स्वयं ही इस कृति के अन्तिम भाग में यह उल्लेख किया हैं कि 'सूरिमंत्र की साधना में उपयोगी सत्तर मुद्राओं का स्पष्टीकरण एवं उनका स्वरूप राजशेखरसूरि विरचित सूरिमंत्र नित्यकर्म के प्रथम एवं द्वितीय पत्रांक से जानना चाहिए तदुपरांत पाँच पीठ की साधना के लिए अनन्य उपयोगी पाँच मुद्राओं का उल्लेख करते हुए कहा गया हैं कि - सूरिमंत्र के प्रथम पीठ का सौभाग्य मुद्रा से, द्वितीय पीठ का परमेष्ठी मुद्रा से, तृतीय पीठ का प्रवचन मुद्रा से, चतुर्थ पीठ का सुरभिमुद्रा से एवं पंचम पीठ का अंजलिमुद्रा से जाप करना चाहिए। इसमें शल्योद्धार तथा विधिनिर्णय के सम्बन्ध में कई कोष्ठक भी दिये गये हैं। अन्त में पूर्वाचार्य विरचित शार्दूलविक्रीडित छन्द में पाँच
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