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________________ 4/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास का उद्देश्य लेकर आध्यात्मिक पथ पर निरन्तर गतिशील बना रहता है। श्रमण स्वार्थ और परार्थमूलक उभयपक्षीय साधना का व्रत होता है। वह आत्म विद्या की उपलब्धि करता हुआ गृहस्थ वर्ग को भी आध्यात्मिक मार्ग का पाथेय प्रदान करता है, जिस पर चलने के लिए गृहस्थ को कुछ विशिष्ट प्रकार की लोचपूर्ण आचार-व्यवस्था या विधि-व्यवस्था का अनुपालन करना होता है। इस तरह जैन एवं बौद्ध संघ में श्रमण एवं ग्रहस्थ दोनों की आचार संहिता या विधि का निरूपण हुआ है। यहां विशेष रूप से यह उल्लेखनीय हैं कि दोनों धर्मों में अधिकांश विधि सम्बन्धी नियमों एवं उपनियमों का निर्माण प्रमुखतया भिक्ष- भिक्षुणियों के लिए ही किया गया है। जैन एवं बौद्ध संघ में यद्यपि व्यक्तिगत साधना पर पूर्वकाल से बल रहा है फिर भी उनमें सामुदायिक साधना की पद्धति ही मुख्य रही है। यह भी स्मरणीय है कि जैन एवं बौद्ध आचार व्यवस्था का आधार क्रमशः भगवान महावीर और भगवान् बुद्ध के उपदेश ही थे। परन्तु यह भी सत्य है कि सभी नियम और उपनियमों का निर्माण तीर्थंकर ही नहीं करते, बहुत से ऐसे नियम और उपनियम हैं जिनके निर्माता श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य गीतार्थ स्थविर रहे है। उन्होंने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को दृष्टि में रखकर मूल नियमों के अनुकूल और अविरोधी नियमोपनियम का निर्माण किया है। जैन आगमों के सर्वप्रथम संस्कृत टीकाकार आचार्य हरिभद्र ने यह स्पष्ट कहा है कि जो भी विधि-विधान या नियम संयम - साधना में अभिवृद्धि करते हों और असंयम की प्रवृत्ति का विरोध करते हों, वे नियम भले ही किसी के द्वारा निर्मित क्यों न हो, ग्राह्य है । ' निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जैन और बौद्ध परम्परा निवृत्तिमार्गी होने के साथ-साथ मूलतः आचार प्रधान रही है। दोनों परम्पराएँ आचार पर बल देती हैं किन्तु दोनों की पद्धति में उल्लेखनीय अन्तर है। 'जैन एवं बौद्ध परम्परा में आचार को लेकर ही विभिन्न शाखाओं यथा- दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी या हीनयान, महायान आदि में मतभेद रहा है। प्रवृत्तिमार्गी परम्परा सामान्यतया वैदिक धर्म को प्रवृत्तिमार्गी और श्रमणधर्मों को निवृत्तिमार्गी कहा जाता है। प्रवृत्तिमार्गी परम्परा में वैदिक धर्म आता है। प्रवर्तक धर्म भोग प्रधान है अतः उसने अपनी साधना का लक्ष्य सुविधाओं की प्राप्ति को ही बनाया है। इस : " श्रमण अंक अक्टूबर-दिसम्बर २००४, डॉ. चन्द्ररेखासिंह द्वारा आलेखित लेख पर आधारित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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