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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/5 . परम्परा के प्रवर्तकों ने ऐहिक जीवन के लिए धन-धान्य, पुत्र, सम्पत्ति आदि की कामना की है और पारलौकिक जीवन के लिए स्वर्ग प्राप्ति की प्रार्थना की। आगे जाकर उन्होंने यह भी अनुभव किया कि सुख-सुविधाओं की प्राप्ति व्यक्ति के अपने पुरुषार्थ पर ही आधारित नहीं है अपितु अलौकिक शक्तियों की कृपा पर भी निर्भर है तब से यह परम्परा उन देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनकी स्तुति करने लगी तथा बलि और यज्ञों के माध्यम से उन्हें सन्तुष्ट करने लगी। इस प्रकार प्रवर्तक धर्म में दो शाखाओं का विकास हुआ (१) भक्तिमार्ग और (२) कर्ममार्ग। मूलतः प्रवर्तक धर्म के अनुयायी भौतिक सुख की प्राप्ति के लिये देवी-देवताओं की स्तुति करते हैं या यज्ञ-यगादि करते हैं। इस परम्परा में मुख्यतः यज्ञ-होमादि को लेकर ही कर्मकाण्डों या विधि-विधानों का निर्माण हुआ है तथा यह संस्कृति मूल रूप से भौतिक प्रधान रही है। जबकि इसके विपरीत निवृत्तिमार्गी परम्परा ने योगों से विरक्ति को ही अपना लक्ष्य बनाया है। यह परम्परा प्राचीनकाल में श्रमण परम्परा, आर्हत् परम्परा या व्रात्य परम्परा के नाम से जानी जाती थी। इस निवर्तक धर्म का लक्ष्य निर्वाण या मोक्ष की प्राप्ति रहा, इसलिए इस परम्परा ने ज्ञान और वैराग्य पक्ष को स्वीकार किया। किन्तु ज्ञान और वैराग्यपूर्ण जीवन सामाजिक एवं पारिवारिक व्यस्तताओं के बीच सम्भव नहीं था, इसलिए इस धर्म में संन्यास मार्ग का विकास हुआ। आगे जाकर निवर्त्तक धर्म भी दो शाखाओं में विभक्त हो गया (१) ज्ञानमार्ग और (२) तपमार्ग। यदि गहराई से अध्ययन करें तो यह पाते हैं कि इस निवृत्तिमार्गी परम्परा में प्रारम्भ में कर्मकाण्ड जैसी कोई चीज नहीं थी। उसमें इसका क्रमशः विकास हुआ है। इस विषय को हम आगे अधिक स्पष्ट कर रहे हैं। उससे पूर्व यह ज्ञात कर लेना आवश्यक है कि प्राचीनकाल में श्रमण परम्परा में (१) जैन, (२) बौद्ध, (३) औपनिषदिक और (४) सांख्य-योग की धाराएँ भी सम्मिलित थी। यद्यपि आज औपनिषदिक और सांख्य-योग की धाराएँ हिन्दू-धर्म का अंग बन चुकी हैं इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ श्रमण धाराएँ भी थी, जो आज विलुप्त सी हो चुकी है। आज श्रमण परम्परा के जीवन्त धर्मों में बौद्धधर्म और जैनधर्म अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। इसमें बौद्धधर्म भारत में जन्मा, यहीं विकसित हुआ किन्तु यहाँ से सुदूर पूर्व में जाकर फैला, जबकि जैनधर्म अति प्राचीनकाल से आज तक अपना अस्तित्व भारत में बनाये हुए है। वस्तुतः इन दोनों ही परम्पराओं के विषय में यह उल्लेख मिलता है कि प्रारम्भ में इन परम्पराओं के अनुयायी तपस्या करते थे और कों का नाश करके मोक्ष पाते थे। इस प्रक्रिया में आराधक को शारीरिक चेष्टा अधिक नहीं करनी होती है वे केवल तप ध्यान-योगादि के द्वारा कर्मक्षय करते हैं। इस प्रकार यह सम्पूर्ण प्रक्रिया प्रवृत्ति प्रधान नहीं है इसलिए इन्हें निवृत्तिमार्गी धर्म कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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