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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/3 अध्याय १ जैन धर्म में विधि-विधानों का उद्भव और विकास कार्य की सफलता का मुख्य आधार उसके सम्पादन की विधि होती है - "विधिपूर्वमेव विहितं कार्य सर्व फलान्वितं भवति" अर्थात कोई भी कार्य विधिपूर्वक किया जाता है तब ही वह फल वाला बनता है। विधि का अर्थ है- कार्य करने का तरीका चाहे वह कार्य कृषि सम्बन्धी हो या पाक सम्बन्धी, व्यापार सम्बन्धी हो या धर्म सम्बन्धी- परन्तु वह पद्धतिपूर्वक किया जाये तो ही योग्य फल देने वाला बनता है इसलिए सभी कार्य विधिपूर्वक करने चाहिए। __ मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में आचारगत विधि-व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारतीय धर्म-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में आचारशास्त्र (विधिशास्त्र) के विभिन्न सिद्धान्तों, दृष्टियों और मर्यादाओं का वर्गीकरण हुआ है। तदनुरूप धर्म या सम्प्रदाय विशेष में प्रतिष्ठापित नियमों, सिद्धान्तों के अनुरूप व्यक्ति अपनी आचार-व्यवस्था या नैतिक व्यवस्था का पालन करता है। अतएव प्रायः सभी धर्मों का केन्द्र बिन्दु यही आचारगत- नैतिक व्यवस्था मानी जाती है। यही मानव धर्म का नियामक तत्त्व भी है। देशकालानुसार इन विधि- व्यवस्थाओं में परिवर्तन एवं परिवर्धन होते रहते हैं। निवृत्तिमार्गी परम्परा _ भारतीय संस्कृति की दो मूल धारायें हैं - एक प्रवृत्तिमार्गी वैदिक (ब्राह्मण) संस्कृति और दूसरी निवृत्तिमार्गी श्रमण संस्कृति । यद्यपि दोनों संस्कृतियों में गृहस्थ वर्ग और श्रमणवर्ग के आचार विषयक अनेक नियम, उपनियम एवं विधि सम्बन्धी सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है। श्रमण संस्कृति के प्रतिनिधि बौद्ध व जैन धर्म में विधि-संहिता सम्बन्धी नियमोपनियमों को प्रतिष्ठापित करने के लिए संघ को चार भागों में विभाजित किया गया है - १. भिक्षुसंघ २. भिक्षुणीसंघ ३. श्रावकसंघ ४. श्राविकासंघ यहाँ इतना जानने योग्य है कि भिक्षु-भिक्षुणियों (साधु-साध्वियों) का संघ सुव्यवस्थित एवं सुनियंत्रित होता है, जबकि श्रावक-श्राविकाओं का संघ उतना अनुशासित और एकरूप नहीं होता है। श्रावक-श्राविकाओं को अपने व्रत, नियम, कर्तव्य आदि के पालन में व्यक्तिगत स्वतन्त्रताएँ होती है। वे अपनी रूचि, शक्ति, परिस्थिति आदि के अनुसार यथायोग्य धार्मिक क्रिया करते हैं एवं समाज के सामान्य नियमानुसार व्यावहारिक प्रवृत्तियों में लगे रहते हैं, जबकि श्रमणवर्ग सांसारिक क्रियाकलापों से सर्वथा मुक्त रहता है और केवल संयम-तप- त्याग की आराधना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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