________________
660/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
हासिल करनी चाहिए जिससे मृत्यु के बाद पवित्र जन्म मिल सके। अपनी शक्ति के अनुसार सहधर्मी का और अपने धर्माचार्य का हर्ष पूर्वक पूजन करना चाहिए। अपने कुल में जो वृद्ध तथा मान्य पुरुष हों उनका शक्तिपूर्वक सत्कार करना चाहिए। समय-समय पर तीर्थ यात्रा करनी चाहिए। प्रतिवर्ष प्रायश्चित्त रूप आलोचना भी लेनी चाहिए इत्यादि। अष्टम उल्लास - इस उल्लास में यह निर्दिष्ट किया गया है कि श्रावक को अपने जीवन काल में पद-पद पर कौन-कौन से कार्य किस-किस प्रकार से करने चाहिए? श्रावक को कैसे राज्य तथा किस देश में रहना चाहिए? शत्रु घर आये तो क्या करना चाहिए? कैसे लोगों के पास नहीं रहना चाहिए? कलाचार्य-शिक्षक-शिष्य आदि के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए इत्यादि। नवम उल्लास (प्रथम) - यह उल्लास विष-दंश एवं उनके उपाय आदि का प्रतिपादन करता है। इसमें यह निरूपण किया गया है कि कौन से दिन, किस वार-तिथि-नक्षत्र को सर्पादि द्वारा काटे जाने का क्या परिणाम होता है? इसके साथ ही जहर उतारने वाले मांत्रिक के, जहर से पीडित व्यक्ति के एवं डंक लगने के स्थान के लक्षण और सर्पजाति इत्यादि पर विचार किया गया है। नवम उल्लास (द्वितीय) - इस उल्लास में सर्वप्रथम मनुष्य द्वारा किये जाने वाले सभी प्रकार के पापों के कारण और उनके फल का वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् षड्दर्शन के मन्तव्य पर विचार किया गया है तथा व्यावहारिक जीवन में अति उपयोगी बातों पर प्रकाश डाला गया है। दशम उल्लास - इसमें संक्षेप से धर्मोपदेश और उसका फल कहा गया है। एकादश उल्लास - इस उल्लास में ध्यान विषयक चर्चा की गई है। द्वादश उल्लास - इस उल्लास में श्रावक को समाधिमरण किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए? अन्त समय निकट आने पर क्या-क्या कृत्य करने चाहिए? तथा देह त्याग के समय कैसे परिणाम रहने चाहिए आदि का निरूपण किया गया है।
निष्कर्षतः यह कृति श्रावकचर्या एवं श्रावककृत्य सम्बन्धी विधानों में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। श्रावक जीवन के समस्त पहलूओं पर विचार करने वाला यह अद्वितीय ग्रन्थ है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org