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________________ 64 / श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य भाग में २२७ गाथाएँ हैं। संक्षेप में कहें तो आचार्य वसुनन्दि ने ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर श्रावकधर्म का वर्णन किया है। उन्होंने सर्वप्रथम दार्शनिक श्रावक के लिए सप्त व्यसनों का त्याग आवश्यक बताया है तथा व्यसनों के दुष्फल का विस्तार से वर्णन किया है। बारह व्रतों और ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन गणधर ग्रथित माने जाने वाले श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र के अनुसार किया गया है और उसकी गाथाओं का ज्यों का त्यों अपने श्रावकाचार में संग्रह कर लिया है। इनके अतिरिक्त पंचमी, रोहिणी, अश्विनी आदि व्रत-विधानों का, पूजन के छः प्रकारों का और बिम्ब-प्रतिष्ठा आदि का भी विस्तृत विवेचन हुआ है। इसमें धनिये के पत्ते के बराबर जिनभवन बनवाकर सरसों के बराबर प्रतिमा स्थापना का महान् फल बताया गया है । इस कथन को परवर्ती अनेक श्रावकाचार रचयिताओं ने अपनाया है । भावपूजन के अन्तर्गत पिण्डस्थ आदि ध्यानों का भी विस्तृत वर्णन किया गया है । अष्ट द्रव्यों से पूजन करने के फल के साथ ही छत्र, चामर और घण्टादान का भी फल बताया गया है। विनय और वैयावृत्यतप का भी यथा स्थान वर्णनकर श्रावकों के लिए उसे करने की प्रेरणा की गई है। कुछ विस्तार से कहना हों तो प्रस्तुत कृति में निम्न विषय चर्चित हुए हैं १ से १० तक की गाथाओं में सम्यग्दर्शन, आप्त उपदेश सुनने की प्रेरणा आदि का वर्णन है, ११ से १५ तक की गाथाएँ जीवतत्त्व से सम्बन्धित है, १६ से ४६ तक की गाथाओं में अजीव तत्त्व का विवेचन हैं, ४६ से ५६ तक की गाथाएँ सम्यक्दर्शन का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करती है, ५७ से १३४ तक की गाथाओं में सामान्य श्रावकाचार का प्रतिपादन है। इनमें सप्तव्यसन त्याग का उपदेश भी है १३५ से १७६ तक की गाथाओं में नरकगति के दुःखों का वर्णन है। इनमें कहा गया है कि जो जीव सप्तव्यसनादि का सेवन करता है उसे नरकादि गतियों में भ्रमण करना पड़ता है और वहाँ के भयंकर दुखों को झेलना पड़ता है। इसी दृष्टि से नरकगति, मनुष्यगति एवं देवगति के दुःख भी दिखाये गये हैं। २०५ से २०६ तक की गाथाओं में प्रथम दर्शन प्रतिमा का निरूपण है। २०७ से २७६ तक की गाथाओं में दूसरी व्रतप्रतिमा का विस्तृत व्याख्यान हुआ है। इनमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत तथा अतिथिसंविभाग के सम्बन्ध में पात्र - भेद, दाता-गुण, दान-विधि, दातव्य, दान- फल और सल्लेखना इत्यादि के लक्षण बताये गये हैं। इसके अन्तर्गत नवधाभक्ति की विधि भी कही गई है। २७४ से ३०० तक की गाथाओं में सामायिकादि शेष नौ प्रतिमाओं को स्वीकार करने की विधि प्रतिपादित है । पोषधोपवास की विधि उत्कृष्ट - मध्यम - जघन्य की अपेक्षा तीन प्रकार की कही है । ३०१ से ३१८ तक की गाथाएँ रात्रिभोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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