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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/63 शती का मध्यकाल है। इसमें सात सर्ग हैं। इन प्रत्येक सर्ग के अन्त में जो पुष्पिका दी है, उसमें इसे 'श्रावकाचार' अपरनाम 'लाटी संहिता' दिया है, तो भी उनका वह श्रावकाचार 'लाटी संहिता' के नाम से ही प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। यह जानने योग्य हैं कि लाटदेश में प्रचलित गृहस्थ-धर्म या जैन आचार-विचारों का संग्रह होने से इसका लाटीसंहिता नाम रखा गया है। इसके प्रथम सर्ग में वैराटनगर, अकबरबादशाह, भट्टारक-वंश और उनके वंशधरों द्वारा बनाये गये जिनालय आदि का विस्तृत वर्णन है। दूसरे सर्ग में अष्टमूल गुणों के धारण करने और सप्तव्यसनों के त्याग का वर्णन है। तीसरे सर्ग में सम्यग्दर्शन का सामान्य स्वरूप भी बहुत सूक्ष्म एवं गहनचिंतन के साथ वर्णित है। चौथे सर्ग में सम्यग्दर्शन के आठों अंगों का विस्तृत विवेचन है। पाँचवे सर्ग में अहिंसाणुव्रत का विस्तृत वर्णन है। छटे सर्ग में शेष चार अणुव्रतों का, गुणव्रत, शिक्षाव्रत के भेदों का और सल्लेखना का वर्णन है। सातवें सर्ग में सामायिकादि शेष प्रतिमाओं का और द्वादश तपों का निरूपण है। प्रस्तुत कृति के अवलोकन से यह ज्ञात होता हैं इसमें श्रावकव्रतों का वर्णन परम्परागत ही हुआ है तथापि प्रत्येक व्रत के विषय में उठने वाली शंकाओं को स्वयं उठा करके उसका सयुक्तिक और सप्रमाण समाधान दिया गया है। ___इन्होंने जम्बूस्वामीचरित, अध्यात्मकमलमार्तण्ड और पिंगलशास्त्र नामक ग्रन्थ भी रचे हैं। वसुनन्दि-श्रावकाचार यह कृति आचार्य वसनन्दि की है। इस प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'उपासकाध्ययन' भी है, पर सर्वसाधारण में यह 'वसुनन्दि-श्रावकाचार' के नाम से प्रसिद्ध है। उपासक अर्थात् श्रावक, अध्ययन अर्थात् जिसमें श्रावक की आचार विधि का विचार किया गया हो वह उपासकाध्ययन कहलाता है। द्वादशांगश्रुत के भीतर उपासकाध्ययन नामक सातवाँ अंग माना गया है, जिसमें श्रावक के सम्पूर्ण आचार का वर्णन है। उस दृष्टि से इस कृति को श्रावक की आचारविधि एवं आवश्यकविधि से सम्बन्धित कह सकते हैं। - इसकी भाषा शौरसेनी प्राकत है, जो कि प्रायः सभी दिगम्बर आचार्यों ने अपनाई है। ग्रन्थ में कुल गाथायें ५४६ है। पूर्वार्ध भाग में ३१८ पद्य है और द्वितीय ' (क) यह कृति हिन्दी अनुवाद के साथ 'पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. करौंदी रोड़ वाराणसी' से सन् १९६६ में प्रकाशित हुई है। (ख) इसका हिन्दी अनुवाद मुनि सुनीलसागर जी ने किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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