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________________ 62 / श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य यहाँ आचार शब्द का अर्थ धर्म है तदुपरान्त विधि-नियम रूप बाह्याचार भी ग्रहण करना चाहिये। इसमें जैन श्रावक की बहुत सी आचार विधियों एवं उनकी कृतियों का वर्णन हुआ है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में वर्धमान महावीर को नमस्कार किया है और धर्म का स्वरूप कहने की प्रतिज्ञा की गई है। अन्त में 'सम्यग्दर्शन' रूपी लक्ष्मी से स्वयं के लिए पवित्र, उज्जवल एवं सुखी ( शुद्धस्वभावी) बनने की प्रार्थना की गई है। प्रस्तुत कृति के प्रथम परिच्छेद में सम्यग्दर्शन का स्वरूप वर्णित है । उसमें सुदेव - सुगुरु- सुधर्म, आठमद, सम्यक्त्व के निःशंकित आदि आठ अंग आदि की जानकारी दी गई है। दूसरे परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान का लक्षण कहकर चार अनुयोगों का संक्षिप्त स्वरूप बतलाया गया है। तीसरा परिच्छेद सम्यक्चारित्र से सम्बन्धित है। इसमें चारित्र के सकल और विकल ये दो भेद बतलाकर विकलचारित्र के बारह भेद अर्थात् श्रावक के बारह व्रतों का निर्देश करके पाँच अणुव्रत और उनके अतिचारों का वर्णन किया गया है। चौथे परिच्छेद में तीन गुणव्रतों का, पाँचवे परिच्छेद में चारशिक्षाव्रतों का, छठे परिच्छेद में पाँच अणुव्रतों की भावनाएँ, संवेगादि भावनाएँ, अनित्यादि बारह भावनाएँ कही गई है। साँतवें परिच्छेद में सल्लेखना का और आठवें परिच्छेद में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही आहारदानविधि, जिनपूजनविधि, धर्मकरने की विधि, व्रतापालनविधि, सल्लेखना ग्रहण विधि आदि का भी निरूपण हुआ है। इस संस्करण के अन्तर्गत प्रत्येक परिच्छेद के अन्त में उस-उस विषय का परिशिष्ट भी दिया गया है। संक्षेपतः यह कृति श्रावकाचार एवं श्रावक धर्म विधि का समीचीन विवरण प्रस्तुत करती है। साथ ही अपने नाम की अर्थवत्ता को भी उजागर करती हैं। इस पर प्रभाचन्द्र ने १५०० श्लोक परिमाण टीका रची है। दूसरी एक टीका ज्ञानचन्द्र मुनि ने लिखी है। इनके अतिरिक्त एक अज्ञातकर्तृक टीका भी है । लाटीसंहिता - श्रावकाचार 'लाटीसंहिता' नामक ग्रन्थ' की रचना श्री राजमल्ल ने की है। यह कृति संस्कृत के १३२४ श्लोकों में ग्रथित है। इसका रचना समय वि.सं. की १७ वीं . १ (क) इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद पं. लालाराम जी ने किया है तथा यह कृति सानुवाद 'भारतीय जैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था, कोलकात्ता' से वी. सं. २४६४ में प्रकाशित है। (ख) इसकी मूल प्रति 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' से प्रकाशित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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