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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/65 करने से होने वाली हानियों का निरूपण करती है। ३१६ से ३३६ तक श्रावक के अन्य कर्तव्यों का निर्देश करते हुए विनय का स्वरूप कहा है। ३३७ से ३५० तक वैयावृत्य से होने वाले लाभ बताये गये हैं। ३५१ से ३५२ तक कायक्लेश तप के प्रकार वर्णित है। ३५३ से ३७६ तक गाथाओं में पंचमीव्रत, रोहिणीव्रत, अश्विनीव्रत, सौख्यसंपत्तिव्रत, विमानपंक्तिव्रत आदि की तप विधियाँ कही गई है। ३८० से ५३८ तक नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव छह प्रकार की पूजाओं का शास्त्रोक्त विवेचन किया है। स्थापना पूजा के अन्तर्गत कारापक एवं इन्द्र के लक्षण तथा प्रतिमाविधान और प्रतिष्ठा विधान उल्लिखित हुए हैं। भावपूजा के सन्दर्भ में पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये चार प्रकार के ध्यान बताये गये हैं। अन्त में सात पद्य प्रशस्ति रूप में दिये गये हैं। उनमें ग्रन्थकार ने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है और स्वयं को आचार्य नेमिचन्द्र का शिष्य बताया है तथा ग्रन्थ के प्रति अपनी लघुता प्रगट की है। साथ ही इस ग्रन्थ का श्लोक परिमाण ३५० कहा है। " इस प्रकार स्पष्ट होता है कि इसमें श्रावकाचारविधि का क्रमशः वर्णन किया गया है। इसके साथ ही इसमें तद्विषयक अन्य विशिष्ट सामग्री का भी उल्लेख हुआ है जो निःसंदेह पठनीय और मननीय है। इस कृति के परिशिष्ट भाग में पंचअणुव्रत आदि के कथानक दिये गये हैं। वरांगचरितगत-श्रावकाचार वरांगचरित नामक इस ग्रन्थ की रचना महाकाव्य के रूप में हुई है। इस ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य जटासिंहनन्दि है। यह कृति' संस्कृत पद्य में रची हुई है। इसमें ३१ सर्ग हैं। इसका रचना समय वि.सं. की आठवी-नवमीं शताब्दी का मध्यवर्ती काल है। इस महाकाव्य के १५ वें सर्ग में श्रावकधर्म का वर्णन उल्लिखित हुआ है। इस सर्ग के प्रारम्भ में धर्म से सुख की प्राप्ति बताकर उसको धारण करने की प्रेरणा की गई है तथा गृहस्थों को दुखं से छूटने के लिए व्रत, शील, तप, दान, संयम और अर्हत्पूजन करने का विधान किया गया है। आगे श्रावक के बारहव्रत कहे गये हैं। इसमें देवता की प्रीति के लिए, अतिथि के आहार के लिए, मंत्र के साधन के लिए, औषधि को बनाने के लिए और भय के प्रतीकार के लिए किसी भी ' (क) इसका हिन्दी अनुवाद प्रो. खुशालचन्द्रजी गोरावाला ने किया है। (ख) यह कृति सानुवाद सन् १६६६ में 'भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्' ने प्रकाशित की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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