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66/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
प्राणी की हिंसा नहीं करने को अहिंसाणुव्रत कहा है। आगे प्रातः और सांयकाल अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म को नमस्कार पूर्वक उनके ध्यान करने को, सर्वप्राणियों पर समताभाव रखने को, संयमधारण करने की भावना करने को और आर्त्त-रौद्रध्यान का त्याग करने को सल्लेखना शिक्षाव्रत कहा है। अन्त में बताया है कि जो विधिपूर्वक उक्त व्रतों का पालन करते हैं वे अवश्य ही परमपद को प्राप्त करते हैं। इस ग्रन्थ के १५, १६ सर्गों में विशाल जिन मन्दिरों का वर्णन है। व्रतसार-श्रावकाचार
इसके रचयिता का नाम अज्ञात है। यह श्रावकाचार अन्य श्रावकाचारों की अपेक्षा सबसे लघुकाय वाला है। इसमें केवल २२ श्लोक हैं जिनमें दो प्राकृत गाथाएँ भी परिगणित' है। इसके भीतर सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि का स्वरूप, समन्तभद्र प्रतिपादित श्लोक के साथ अष्ट मूलगुणों का निर्देश, अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण का, अगलित जल-पान का निषेध, बारहव्रतों का नामोल्लेख और हिंसक पशु-पक्षियों को पालने का निषेध किया गया है। रात्रिभोजन को तत्त्वतः आत्मघात कहा गया है। सुख-दुःख, मार्ग-संग्राम आदि के नमस्कार मंत्र स्मरण करते रहने का उपदेश दिया है तथा यात्रा, पूजा, प्रतिष्ठा और जीर्ण चैत्य-चैत्यालयादि के उद्धार की प्रेरणा दी गई है। .
इसके अन्तिम श्लोक में कहा है कि इस 'व्रतसार' में वर्णित विधि-नियमों का शक्ति के अनुसार पालन करने वाला अवश्य मोक्ष जायेगा। व्रतोद्योतन-श्रावकाचार
__इस श्रावकाचार की रचना श्री अभ्रदेवमुनि ने प्रवरसेनमनि के आग्रह से की है। यह रचना संस्कृत के ५४२ पद्यों में सुग्रथित है। इसका रचना समय वि. सं. १५५६ से १५६३ के मध्य जानना चाहिये। यह अपने नाम के अनुरूप ही व्रतों का उद्योत करने वाला श्रावकाचार है। इसमें कोई अध्याय-विभाग नहीं है। प्रारम्भ में प्रातःकाल उठकर, शरीरशुद्धि कर जिनबिम्बदर्शन एवं पूजन करने का उपदेश है। उसके बाद रजस्वला स्त्री के लिए पूजन और गृहकार्य करने का निषेध किया है तथा पूर्वभव में मुनि निन्दा करने वाली स्त्रियों का उल्लेख किया है। पुनः अभक्ष्य भक्षण, कषायों के दुष्फल, पंचेन्द्रिय विषय और सप्त व्यसन सेवन के दुष्फल बताकर कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि पुरुष नवीन मुनि की तीन दिन तक परीक्षा करके पीछे नमस्कार करें। तदनन्तर श्रावक के बारहव्रतों का, सल्लेखना
' यह ग्रन्थ अभी तक कहीं से स्वतंत्ररुप से प्रकाशित नहीं हुआ है। इसका अनुवाद पं. हीरालाल जैन शास्त्री ने किया है। यह रचना 'श्रावकाचार संग्रह' भा. ३ में प्रकाशित है।
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