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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/67
का और बारह भावनाओं का वर्णन किया गया है। फिर पाक्षिक, नैष्ठिक, साधक का स्वरूप बताया गया है तथा उनको परीषह सहने, समिति पालने, अनशनादि तपों के करने और सोलह भावनाओं के भाने का उपदेश दिया गया है। इसके साथ ही आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि की गई है। आगे ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्व का निराकरण कर जैन मान्यता प्रतिष्ठित की गई है। अन्त में मिथ्यात्व आदि कर्मबन्ध के कारणों का वर्णन किया गया है। अहिंसादि व्रतों के अतिचारों का, व्रतों की भावनाओं का, सामायिक के बत्तीस और वन्दना के बत्तीस दोषों का वर्णन किया गया है। इस श्रावकाचार के कुछ बिन्दु विशेष रूप से विचारणीय है।'
निष्कर्षतः इस श्रावकाचार की रचना कवित्वपूर्ण एवं प्रसादगुण से युक्त है और महाकाव्यों के समान यह विविध छन्दों मे रचा गया है।२।। श्रावकव्रतधारण-विधि
यह कृति हिन्दी भाषा में रचित है। इस कृति के लेखक छोगमलजी चोपड़ा है। बारहव्रतों का स्वरूप समझने एवं उन्हें ग्रहण करने की दृष्टि से यह कृति अत्यन्त उपयोगी है। इसमें बारहव्रतों का सविस्तार विवेचन हुआ है। साथ ही 'बारहव्रतधारण करने की विधि' भी उल्लिखित हुई है।
इस पुस्तक का अवलोकन करने से ज्ञात होता हैं कि यह कृति तेरापंथ की आम्नाय (परम्परा) के अनुसार लिखी गई है। इसके तीन संस्करण बाहर आ चुके हैं। श्रावकाचार-सारोद्वार
यह कृति श्रीप्रभाचन्द्र के शिष्य श्री पद्मनन्दि ने रची है। इसकी शैली संस्कृत है। इसमें ११४६ श्लोक हैं। इसका रचनाकाल वि.सं. की १४ वीं शती का पूर्वार्ध माना गया है। यह तीन परिच्छेदों में विभक्त है। प्रथम परिच्छेद में पुराणों के समान मगधदेश, राजा श्रेणिक आदि का वर्णनकर गौतम गणधर के द्वारा धर्म का निरूपण करते हुए सम्यक्त्व के आठ अंगों का वर्णन किया है। दूसरे परिच्छेद में सम्यक्ज्ञान का वर्णन कर अष्टांगो द्वारा उपासना करने का विधान किया गया है। तीसरे परिच्छेद में चारित्र की आराधना करने का उपदेश दिया है तथा मद्य, मांसादि के सेवन जनित दोषों का विस्तृत वर्णन किया है। इस प्रकरण में 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' के अनेक श्लोक उद्धृत किये हैं। सल्लेखना विधि का वर्णन
' देखिए, 'श्रावकाचारसंग्रह' भा. ४ २ यह कृति अभी तक अप्रकाशित है। ३ यह कृति अप्रकाशित है किन्तु 'श्रावकाचारसंग्रह' भा. ३ में प्रकाशित है।
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