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________________ 68 / श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य करते हुए ‘समाधिमरण आत्मघात नहीं है' यह सयुक्तिक सिद्ध किया है । अन्त में सप्तव्यसन सेवन के दोषों को बताकर उनके त्याग का उपदेश दिया गया है। यहाँ उल्लेखनीय हैं कि इसमें श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं के नामों का उल्लेख तक भी नहीं किया गया है। इस श्रावकाचार में स्थल विशेषों पर जो सूक्तियाँ दी गई है, वे पठनीय हैं। श्री पद्मनन्दि ने प्रस्तुत श्रावकाचार के सिवाय वर्धमानचरित, अनन्तव्रतकथा, भावनापद्धति और जीरा पल्ली पार्श्वनाथ स्तवन की रचनाएँ की हैं। श्रावकप्रज्ञप्ति ‘श्रावकप्रज्ञप्ति' (सावयपण्णत्ति) नामक यह ग्रन्थ जैन महाराष्ट्री प्राकृत के ४०१ पद्यों में निबद्ध है। आचार्य हरिभद्र रचित यह कृति श्रावकाचार से सम्बन्धित ग्रन्थों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । प्रस्तुत कृति के ग्रन्थकार के विषय में मतभेद हैं। ऐसा माना जाता है कि इसके पूर्व आचार्य उमास्वाति ने भी इसी नाम की एक कृति संस्कृत भाषा में निबद्ध की थी । यद्यपि अनेक ग्रन्थों में इसका उल्लेख भी मिलता है, परन्तु आज तक उसकी कोई भी प्रति हस्तलिखित उपलब्ध नहीं हुई है। मात्र नाम साम्य के कारण हरिभद्र की इस प्राकृत कृति ( सावयपण्णत्त) को तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता उमास्वाति की रचना मान लिया जाता है, किन्तु यह एक भ्रान्ति ही है। पंचाशक की अभयदेवसूरिकृत वृत्ति में और लावण्यसूरिकृत द्रव्यसप्तति में इसे हरिभद्र की कृति माना गया है। परम्परागत धारणा के अनुसार इस कृति का रचनाकाल लगभग छठीं शती का उत्तरार्ध माना जाता है । किन्तु विद्वत्वर्ग आचार्य हरिभद्र का काल ८ वीं शताब्दी मानता है। श्रावकप्रज्ञप्ति नामक यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार श्रावक के कर्त्तव्य कार्यों का विवेचन करनेवाला है। इस कृति में मुख्यतः श्रावकाचार से सम्बन्धित अग्रलिखित तीन अधिकार कहे गये हैं। १. सम्यक्त्वव्रत अधिकार २. बारहव्रत अधिकार ३. सामाचारी अधिकार । इस रचना के सामाचारी नामक तीसरे अधिकार में श्रावकचर्या से सम्बन्धित कुछ आवश्यक विधियों का उल्लेख इस प्रकार उपलब्ध होता है . १. दिवाकृत्य विधि इस विधि में प्रातः काल से लेकर सायंकाल तक करने योग्य आवश्यक कर्त्तव्यों जैसे प्रभुपूजन, गुरुदर्शन, जिनवाणी श्रवण इत्यादि का सामान्य रूप से प्रतिपादन किया गया है। २. रात्रिकृत्य विधि इस विधि के अन्तर्गत यह प्रतिपादित हैं कि श्रावक को शयन ,, इस कृति में ४०५ गाथाएँ होने का भी उल्लेख प्राप्त है। देखिए, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ४, पृ. २७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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