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सारतः इस ग्रन्थ को सर्वजन उपयोगी बनाने के लिए जैन विधि-विधान की विकास यात्रा, विधि का महत्त्व, विधि-विधान का स्वरूप, विधि-विधान के प्रयोजन, प्राचीन - अर्वाचीन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य, अन्य परम्पराओं के विधि-विधानों का तुलनात्मक विवेचन आदि तथ्यमूलक पहलूओं पर प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार इस रचना को हर तरह से सर्वग्राही बनाने का प्रयास किया गया है।
इस बृहद् ग्रन्थ आलेखन के गुरु-गंभीर कार्य की पूर्णाहुति प्रसंग पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोगी जनों के प्रति आभार अनुज्ञापित करने के लिए मेरे हृदय मन्दिर में जितना सघन अहसास है, उतने शब्द नहीं हैं। फिर भी मैं सर्वप्रथम युगादिकर्त्ता प्रभु आदिनाथ एवं शासनाधिपति प्रभु महावीर के चरणों श्रद्धाप्रणत हूँ, जिन्होंने प्राणीमात्र को मोक्ष का पथ दिखलाया ।
इस ज्ञानयज्ञ की सम्पन्नता में विश्वास व आत्मबल का निर्धूम दीपक प्रज्वलित करने वाले शासन उपकारी, युगप्रभावी चारों दादा गुरूदेवों के पाद - पद्मों में श्रद्धायुक्त नमन करती हूँ ।
इस श्रुतगंगा में चेतन मन को सदैव आप्लावित करते रहने की परोक्ष प्रेरणा प्रदान करने वाली श्रुतगंगोत्री, आगममर्मज्ञा प्रवर्त्तिनी महोदया गुरुवर्य्या श्री सज्जन श्री जी म.सा. के पाद - प्रसूनों में श्रद्धा सिंचित प्रणाम करती हूँ ।
जिनशासन के आशुकवि, ज्योतिर्विद, उपाध्यायप्रवर श्री मणिप्रभ सागरजी म.सा. को मेरा नमन, जिन्होंने अध्ययन के प्रति सदैव जागरूक रहने एवं प्रगति पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देकर पाथेय प्रदान किया ।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के प्रणयन में शिक्षागुरू का अहम् स्थान होता है, उनकी महत्त्वाकांक्षाएँ अनिर्वचनीय हैं, जिन्होंने मेरे कोमल हृदय में अनवरत अध्ययन की प्रवृत्ति का बीजारोपण किया और सामाजिक एवं सामुदायिक जिम्मेदारियों से मुक्त रखकर समय व स्थान की भरपूर सुविधा प्रदान की, उन सज्जनमणि, संघरत्ना, वात्सल्यहृदयी पू. शशिप्रभाश्रीजी म. को श्रद्धा भरी वन्दना करती हूँ ।
इसी क्रम में स्नेह गंगोत्री, कोयल सम जन-जन को धर्माभिमुख करने वाली जयेष्ठ भागिनी पू. प्रियदर्शनाश्रीजी म.सा. के पादप्रसूनों में कृतज्ञता के सुमन लिए प्रतिपल नतमस्तक हूँ, जिनके सम्यक् सुझावों के परिणामस्वरूप इस कलेवर को तैयार करने में सक्षम बन सकी ।
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