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मेरा सहवर्ती भगिनी मंडल पू. जयप्रभाश्रीजी म., पू.दिव्यदर्शनाश्रीजी म., पू. तत्त्वदर्शनाश्रीजी म., पू. सम्यक्दर्शनाश्रीजी म., पू. शुभदर्शनाश्रीजी म., पू. मुदितप्रज्ञाश्रीजी म., पू. शीलगुणाश्रीजी म. आदि सर्व को नतमस्तकेन वंदन, जिनकी स्नेहिल भावनाएँ मेरे कार्य की गति-प्रगति में सहायक बनी।
मैं आभारी हूँ-साध्वीद्वया सरलमना स्थितप्रज्ञाजी एवं मौनसाधिका संवेगप्रज्ञाजी के प्रति, जिन्होंने इस ग्रन्थ के लेखन काल में व्यावहारिक औपचारिकताओं से मुक्त रखने, प्रूफ संशोधन करने एवं हर तरह की सेवाएँ प्रदान करने में विशिष्ट भूमिका अदा की। साथ ही गुरू आज्ञा को शिरोधार्य कर ज्ञानोपासाना के पलों में निरन्तर मेरी सहचरी बनी रहीं।
मैं उन सभी चारित्रात्माओं के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ, जिनका यहाँ उल्लेख नहीं किया जा सका, लेकिन जिनका मुझे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में सहयोग प्राप्त हुआ।
जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्मदर्शन के निष्णात विद्वान, प्राच्यविद्यापीठ संस्थापक, आदरणीय डॉ. सागरमलजी के प्रति भी हार्दिक कृतज्ञता अभिव्यक्त करती हूँ, जिन्होंने न केवल मेरा उत्साहवर्द्धन ही किया, अपितु पितृ तुल्य वात्सल्य भाव रखते हुए सदैव स्वावलम्बी बनने की सम्प्रेरणाएँ प्रदान की। निर्देशक होने के नाते मेरे द्वारा आलेखित ऐतिहासिक सामग्री का न केवल अवलोकन एवं संपादन ही किया, अपितु संशोधन कर इस कृति को निर्दोष भी बनाया। उन्होंने एक मार्गदर्शक के रूप में मेरा जो सम्यक् मार्गदर्शन किया, वह चिरस्मरणीय तथा मेरी साधना यात्रा में भी सहयोगी रहेगा। मेरी यही कामना है उन सन्त पुरुष का स्नेहभाव मुझे अनवरत मिलता रहे।
आदरणीया कमलाबाई सा. सुपुत्र नरेन्द्रभाई एवं उनके समस्त परिवार के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने अध्ययनकाल में स्थान आदि सेवाएँ प्रदान कर अनूठा धर्मलाभ अर्जित किया।
इन सुखद क्षणों में अन्तरमन से आभारी हूँ, जैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् डॉ. डी.एस.बया के प्रति, जिन्होंने अपने मौलिक चिन्तन से अनेक सुझाव दिये।
इस अवसर पर संघमान्य अध्यक्ष लोकेन्द्र भाई नारेलिया, ज्ञानचन्दजी गोलेच्छा, पारसजी मांडलिक, राजेन्द्रजी जैन आदि समस्त शाजापुर संघ के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ , जिन्होंने अध्ययन यात्रा में हर संभव सहयोग दिया।
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