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________________ 376/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य अब श्राद्धजीतकल्प के अनुसार श्रावकाधिकार संबंधी प्रायश्चित्त विधान का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है। इस ग्रन्थ में निम्न विषय उल्लिखित हुए हैं - १. आगमादि पाँच प्रकार के व्यवहार का वर्णन, २. आलोचना ग्रहण विधि, ३. आलोचना ग्रहण करने का काल, ४. आलोचना ग्रहण के योग्य कौन?, ५. आलोचना दान के योग्य कौन?, ६. आलोचना के लिए योग्य गुरु के अभाव में अपवाद, ७. आचार्य- उपाध्यायादि का स्वरूप, ८. आलोचना किसके समान करनी चाहिये, ६. आलोचना करने वाले आराधक के दस गुण और दस दोष, १०. सम्यक् आलोचना से होने वाले गुण, ११. अगीतार्थ साधु के पास आलोचना करने से होने वाले दोष, १२. गीतार्थ गुरु के पास आलोचना न करने से लगने वाले दोष और आलोचना करने से होने वाले गुण, १३. सम्यक् आलोचना करने का और नही करने का फल, १४. अतिचार आपत्ति के प्रकार, १५. प्रायश्चित्त के भेद, १६. अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त का स्वरूप, १७. आलोचना करने का फल और उसके संबंध में राघावेधक का दृष्टान्त, १८. ज्ञानाचार और दर्शनाचार में लगने वाले अतिचारों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त विधान, १६. भिक्षा के दोष, २०. आहार करने एवं आहार न करने के कारण, २१. अशुद्ध आहार-पानी बहराने वाले के लिए प्रायश्चित्त विधान, २२. साधु के समीप में स्वयं की औषधादि का काम करवाने वाले श्रावक के लिए प्रायश्चित्त, २३. सकारण पार्श्वस्थादि साधु को वंदन न करने से लगने वाला प्रायश्चित्त, २४. सम्यक्त्वव्रत के संबंध में कन्या के निमित्त फल को ग्रहण करना, वृक्षारोपण करना, बलिविधान करना, मिथ्यादेव को वंदन करना, मिथ्यादृष्टियों के तीर्थ में स्नान करना इत्यादि प्रवृत्ति करने वाले श्रावक के लिए प्रायश्चित्त विधान, २५. पूजा करते हुए हाथ में से प्रतिमा गिर जाये, अविधि से पूजा करें, गुरु तथा गुरु के आसन आदि की पॉव से आशातना हो जाये, स्थापनाचार्यजी हाथ से गिर जाये उस विषय में प्रायश्चित्त विधान, २६. द्वीन्द्रियादि जीवों का संघट्टा हो जाये, अनछाना पानी पी लें, अनछाना पानी गरम कर लें तथा उससे स्नान कर लें, बिना देखे अग्नि में ईधन डाल दें इत्यादि प्रथम अहिंसाव्रत के सम्बन्ध में प्रायश्चित्त का विधान, २७. इसी प्रकार सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रह परिमाणव्रत में एवं रात्रि भोजन, बाईस अभक्ष्य, बत्तीस अनन्तकाय का सेवन करने से लगने वाले दोषों का प्रायश्चित्त विधान, २८. चार शिक्षाव्रत के सम्बन्ध में सामायिक-देशावगासिक-पौषध-अतिथिसंविभाग इन चार शिक्षाव्रतों में लगने वाले अतिचारों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त विधान, २६. तपाचार और वीर्याचार के संबंध में यथाशक्ति तप न करना, तपस्वी की निंदा करना, तप में अंतराय देना, नवकारसी आदि प्रत्याख्यान भंग करना, अकारण प्रतिक्रमण नहीं करना, बैठे-बैठे प्रतिक्रमण करना, सात क्षेत्र में दान करने की शक्ति को छुपाना, तप-स्वाध्याय-पूजा आदि के लिए शक्ति होने पर भी अल्प-मात्रा में करना, साधर्मी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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