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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/375 देवेन्द्रसूरि के शिष्य धर्मघोषसूरि है। यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में निबद्ध है। इसमें १४२ गाथाएँ हैं तथा किसी-किसी के मत से इसमें २२५ पद्य हैं। यह कृति वि.सं. १३५७ में रची गई है। यह प्रायश्चित्त विधान का सर्वमान्य ग्रन्थ है। इसमें श्रावक के प्रायश्चित्त विधान का निरूपण हुआ है अतः इस कृति का नाम 'श्राद्धजीतकल्प' हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि आगमसाहित्य में छेदसूत्र और जीतव्यवहारादि सूत्र प्रायश्चित्त विषयक कहे गये हैं तथा उन ग्रन्थों को उस रूप में विशेष मान्यता मिली है। इतना ही नहीं उन ग्रन्थों में मुख्यतया साधु-संबंधी प्रायश्चित्त विधान का ही निरूपण हुआ है। जबकि इस ग्रन्थ की विशिष्टता यह है कि इसमें श्रावक संबंधी प्रायश्चित्त का विवेचन हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ की दूसरी विशेषता यह हैं कि श्रावक संबंधित प्रायश्चित्त विधान का यह प्रथम ग्रन्थ है। इसके पहले इस विषय का कोई ग्रन्थ रचा गया हो, लेकिन वह हमारे देखने में नहीं आया है। इस ग्रन्थ में प्रायश्चित्त विधि से मिलते-जुलते अन्य अनेक साक्षीपाठ दिये गये हैं परन्तु उन साक्षी पाठों में कोई भी ग्रन्थ इस ग्रन्थ की समानता करने वाला दिखाई नहीं देता है। इस कृति की तीसरी विशेषता कही जा सकती है कि जिस प्रकार श्रावक विषयक प्रायश्चित्त आदि का यह प्रथम ग्रन्थ है उसी प्रकार अंतिम ग्रन्थ भी है। इस रचना के बाद तद्विषयक कोई ग्रन्थ रचा गया हो ऐसा ज्ञात नहीं है। हमें अब तक इस प्रकार की कोई कृति देखने-पढ़ने को नहीं मिली है। इससे निःसंदेह सिद्ध होता है कि श्रावकसंबंधी प्रायश्चित्त विधान का यह प्रथम और अंतिम ग्रन्थ है। यह जानने योग्य है कि 'श्राद्ध-जीतकल्प' की रचना व्यवहार-निशीथ-बृहत्कल्प आदि सूत्रों के आधार पर हुई है। इसका निर्णय इस ग्रन्थ की वृत्ति के प्रारम्भिक श्लोक से ही हो जाता है। इस विवरण से यह भी स्पष्ट होता है कि आगम साहित्य में गौण पक्ष के आधार पर ही ये श्रावक संबंधी प्रायश्चित्तादि वर्णित हैं। इस ग्रन्थ की वृत्ति का प्रारम्भिक वर्णन पढ़ने से यह भी अवगत होता है कि इस कृति के पूर्व विविध सामाचारियों के आम्नायगत अनेक जीतकल्प उस समय में विद्यमान थे। पुनः इस ग्रन्थ का मुख्य विषय श्रावकादि के व्रत-नियम में अतिचार लगे हों अथवा व्रतभंग हुआ हों उसकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का वर्णन करना है। इसके साथ ही इस ग्रन्थ को पढ़ने का अधिकारी कौन है? उस विषय में भी ग्रन्थकार ने स्पष्टता की है। इससे ज्ञात होता है कि छेदसूत्रों या अन्य आगम ग्रन्थों की तरह इस ग्रन्थ का कोई भी व्यक्ति अनधिकार पूर्वक वांचन कर इसका उपयोग नहीं कर सकता है। २ देखिये - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ४, पृ. २८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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