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374/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
कि कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्त का कथन तो किया गया है किन्तु प्रायश्चित्त दान की विधि नहीं बताई गई है। व्यवहार में प्रायश्चित्त दान और आलोचना विधि का अभिधान है।
आगे कहा है कि व्यवहारोक्त प्रायश्चित्त दान के लिए यह आवश्यक हैं कि प्रायश्चित्त देने वाला और प्रायश्चित्त लेने वाला दोनों गीतार्थ हो। अगीतार्थ न तो प्रायश्चित्त देने का अधिकारी है और न लेने का। प्रायश्चित्त क्या है? इस प्रश्न को लेकर आचार्य ने प्रायश्चित्त का अर्थ बताते हुए उसके प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और परिकुंचना इन चार भेदों का सविस्तार व्याख्यान किया है। प्रतिसेवना रूप प्रायश्चित्त के दस प्रकार कहे गये हैं। इन दस प्रकार के प्रायश्चित्तों की दान विधि के व्याख्यान के साथ पीठिका का विवरण समाप्त होता है।
निष्कर्षतः व्यवहार पर लिखी गयी यह टीका व्यवहार सूत्र एवं भाष्य के अनेक रहस्यों को प्रकट करने वाली है। व्याख्या के प्रसंग में अनेक पारिभाषिक शब्दों की परिभाषाएँ उनकी टीका में मिलती हैं, जैसे- अत्र गुरुशब्देनोपाध्याय उच्यते (१६७ टी.प. ५५), चारित्रस्य प्रवर्तकः प्रज्ञापक उच्यते (४१७४ टी.प. ४७), धर्मे विषीदतां प्रोत्साहकः स्थविरः (२१७ टी.प. १३)
। कहीं-कहीं दो समान शब्दों का अर्थभेद भी उन्होंने बहुत निपुणता से प्रस्तुत किया है। व्याख्या के साथ-साथ उन्होंने उस समय की परम्पराएँ एवं सांस्कृ तिक तत्त्वों का समावेश भी अपनी टीका में किया है। भाष्यकार ने कथा का संक्षिप्त संकेत किया है किन्तु उन्होंने पूरी कथा का विस्तार दिया है। बिना टीका के उन कथाओं को समझना आज अत्यन्त कठिन होता। टीका में उन्होंने किसी विषय की पुष्टि में अन्य ग्रन्थों के उद्धरण भी दिये हैं, जो उनकी बहुश्रुतता के द्योतक हैं।
इस प्रकार शोध के आधार पर प्रायश्चित्त दान एवं तत्सम्बन्धी विधि-विधानों को अत्यन्त सुगमता पूर्वक समझा जा सके एतदर्थ 'व्यवहार विवरण' अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होती है। सड्ढजीयकप्पो (श्राद्धजीतकल्प)
___ इस ग्रन्थ' के कर्ता रचना नव्यकर्मग्रन्थादि की रचना करने वाले
' (क) इस कृति का संशोधन तपागच्छीय माणिक्यसागरसूरि के शिष्य लाभसागरगणि ने किया
(ख) यह कृति मूलपाठ के साथ वृत्ति सहित श्री सीमंधर स्वामी जैन ज्ञान मंदिर, महेसाणा से वि.सं. २०२७ में प्रकाशित हुई है।
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