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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/601
सिद्धियोग का प्रतिपादन हुआ है। दूसरे व्यवहार नामक द्वार में ६० गाथाएँ हैं, जिनमें ग्रहों की राशि, स्थिति, उदय, अस्त और वक्र दिन की संख्या का वर्णन है। तीसरे गणित नामक द्वार में ३८ गाथाएँ हैं और चौथे लग्नद्वार में ६८ गाथाएँ हैं इनमें भी ज्योतिष सम्बन्धी विधि-विधान का निरूपण हैं। ज्योतिस्सार
आचार्य नरचन्द्रसूरि ने इस ग्रन्थ की रचना २५७ पद्यों की है। में इसका रचनाकाल वि.सं. १२८० में है। ये मलधारी गच्छ के आचार्य देवप्रभसूरि के शिष्य थे।
इस ग्रन्थ में निम्नोक्त ४८ विषयों पर प्रकाश डाला गया है' - १. तिथि, २. वार, ३. नक्षत्र, ४. योग, ५. राशि, ६. चन्द्र, ७. ताराबल, ८. भद्रा, ६. कुलिक, १०. उपकुलिक, ११. कण्टक, १२. अर्धप्रहर, १३. कालबेला, १४. स्थविर, १५-१६. शुभ-अशुभ, १७-१६. ख्युपकुमार, २०. राजादियोग, २१. गण्डान्त, २२. पचंक, २३. चन्द्रावस्था, २४. त्रिपुष्कर, २५. यमल, २६. करण, २७. प्रस्थानक्रम २८. दिशा, २६. नक्षत्रशूल, ३०. कील, ३१. योगिनी, ३२. राहु, ३३. हंस, ३४. रवि, ३५. पाश, ३६. काल, ३७. वत्स, ३८. शुक्रगति, ३६. गमन, ४०. स्थाननाम, ४१. विद्या, ४२. क्षौर, ४३. अम्बर, ४४. पात्र, ४५. नष्ट, ४६. रोगविराम, ४७. पैत्रिक, ४८. गेहारम्भ।
इनके रचित चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र, प्राकृतदीपिका, अनर्घराघव-टिप्पण, न्यायकन्दली-टिप्पण और वस्तुपाल-प्रशस्तिरूप शिलालेख आदि मिलते हैं। टिप्पण - इस ग्रन्थ पर श्री सागरचन्द्रमुनि ने १३३५ श्लोक परिमाण टिप्पण की रचना की है। इसमें विशेषतः ज्योतिस्सार में दिये गये यंत्रों का उद्धार और उस पर विवेचन किया गया है। ज्योतिर्विदामरण-टीका
___ इस ग्रन्थ के रचनाकार के विषय में कई मत हैं। कुछ विद्वान् इसे रघुवंश के कर्ता कालिदास की रचना मानते हैं तो कुछ जन दूसरे ही कालिदास की रचना मानते हैं। एक विद्वान ने इसका रचनाकाल १६ वीं शताब्दी माना है। यह ग्रन्थ मुहूर्त्तविषयक है। इस पर पूर्णिमागच्छ के भावरत्नसूरि (भावप्रभसूरि) ने सन् १७१२ में सुबोधिनी-वृत्ति रची है। यह अप्रकाशित है।
' यह कृति पं. क्षमाविजयजी द्वारा संपादित होकर शाह, मूलचंद बुलाखीदास मुंबई की ओर से सन् १६३८ में प्रकाशित हुई है।
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