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________________ अधिकार में मास का बढ़ना और घटना एवं अवमरात्रांश आदि का विवेचन है। सातवें नक्षत्र परिमाण प्राभृत में नक्षत्रों के संस्थान, चन्द्रमा के परिवार आदि का निरूपण है। आँठवें अधिकार में चन्द्र और सूर्य मण्डल का तथा नौवें अधिकार में नक्षत्र, चन्द्र और सूर्य के गतिमण्डल का विवेचन है। दसवें अधिकार में इनके योगकाल आदि की विधि का निरूपण है । ग्यारहवें अधिकार में जम्बू दीप आदि का परिमाण करण एवं चन्द्र-सूर्य मण्डल आदि का विस्तार से निरूपण है। बारहवें अधिकार में सूर्य और चन्द्र की आवृत्ति का निरूपण, चौदहवें अधिकार में मुहूर्त और प्रतिमुहूर्त में जाने का परिमाण तथा पन्द्रहवें अधिकार में ऋतु परिमाण को जानने की विधि का विवेचन है। सोलहवें अधिकार में विपुवकाल, सत्रहवें अधिकार में चन्द्र और सूर्य के परस्पर व्यतिपात का निरूपण, अठारहवें अधिकार में सूर्य के तप का निरूपण तथा उन्नीसवें अधिकार में दिन की वृद्धि और हानि का निरूपण हुआ है। बीसवें एवं इक्कीसवें में अमावस्या करण और पूर्णिमा करण का विस्तार से प्रतिपादन है। बावीसवें में प्रणष्ट पर्व, जन्म और नक्षत्र आदि का विवेचन है तथा अन्तिम तेईसवें में पौरूषी परिमाण का निरूपण है । अन्त में ग्रन्थकार पादलिप्ताचार्य के नामोल्लेख पूर्वक ग्रन्थ को पूर्ण किया गया है। जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 603 यह ध्यातव्य है कि प्रायः सभी प्रकार के उत्तम विधि-विधान शुभमुहूर्त के आश्रित होते है अतः इनका ज्योतिष विद्या से घनिष्ठ सम्बन्ध मानना सर्वथोचित्त है। टीका - प्रस्तुत कृति पर मलयगिरि द्वारा ३१५० श्लोकपरिमाण वृत्ति लिखी गई है। जातकदीपिका पद्धति इस ग्रन्थ के कर्त्ता का नाम और रचना समय अज्ञात है। किन्तु इस कृ ति के अवलोकन से यह अवगत होता है कि इस ग्रन्थ की रचना कई प्राचीन ग्रन्थकारों की कृतियों के आधार पर की गई हैं। इनमें वार, स्पष्टीकरण, ध्रुवादिनयन, भीमा दीशबीजध्रुवकरण, लग्नस्पष्टीकरण होराकरण, नवमांश, दशमांश, अन्तर्दशा, फलदशा आदि विषय पद्य में हैं। इसमें कुल ६४ श्लोक है । ' जोणिपाहुड (योनिप्राभृत) यह रचना' दिगम्बराचार्य धरसेन की मानी जाती है। यह प्राकृत पद्य में १ इसकी १२ पत्रों की प्रति ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर अहमदाबाद में है। वह वि.सं. १८४७ में लिखी हुई है। २ इस अप्रकाशित ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति भांडारकर इंस्टीट्यूट, पूना में उपलब्ध है। किन्तु उस प्रति में पं. बेचरदासजी के अनुसार इसके कर्त्ता के रूप में पं. प्रज्ञाश्रमण ( पण्णसवण ) का उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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