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368/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
चतुर्थ उद्देशक - इस उद्देशक में मुख्य रूप से साधुओं के विहार सम्बन्धित विधि-विधान है। इसमें लिखा है कि- शीत और उष्णकाल के आठ महिनों में आचार्य और उपाध्याय को कोई अन्य साधु साथ में न हो तो विहार नहीं करना चाहिए। गणावच्छेदक को साथ में दो साधु होने पर ही विहार करना चाहिए। इसी प्रकार आचार्य और उपाध्याय को अन्य साधु साथ में हो तो भी अलग चातुर्मास नहीं करना चाहिए। अन्य दो साधुओं के साथ में होने पर ही अलग चातुर्मास करना चाहिए। गणावच्छेदक के लिए चातुर्मास में कम से कम तीन साधुओं का सहवास अनिवार्य है। इस सम्बन्ध में और भी निर्देश दिये गये हैं।
इसके अतिरिक्त चतुर्थ उद्देशक में ये विधि-विधान प्राप्त होते हैं१. वर्षावास में वसति को शून्य न करने का निर्देश, शून्य करने से होने वाले दोष तथा प्रायश्चित्त का विधान २. अयोग्य क्षेत्र में वर्षावास बिताने से प्रायश्चित्त-विधान ३. दो-तीन मुनियों के रहने से समीपस्थ घरों से गोचरी का विधान ४. उपाश्रय-निर्धारण की विधि ५. वर्षाकाल में समाप्तकल्प और असमाप्तकल्प वाले मुनियों की परस्पर उपसंपदा विधि ६. घोटककंडूयित विधि से सूत्रार्थ का ग्रहण ७. समाप्तकल्प की विधि का विवरण ८. ऋतुबद्धकाल में गणावच्छेदक के साथ एक ही साधु हो तो उससे होने वाले दोष एवं प्रायश्चित्त-विधि ६. गण-निर्गत मुनि संबंधी प्राचीन और अर्वाचीन विधि १०. निर्वाचित राजा मूलदेव की अनुशासन विधि ११. अन्य मुनियों के साथ रहने से पूर्व ज्ञानादि की हानि-वृद्धि की परीक्षा विधि १२. सापेक्ष उपनिक्षेप में राजा द्वारा राजकुमारों की परीक्षा विधि १३. जीवित अवस्था में पूर्व आचार्य द्वारा नए आचार्य की स्थापना विधि १४. आचार्य द्वारा अनुमत्त शिष्य को गण न सौंपने पर प्रायश्चित्त का विधान १५. गीतार्थ मुनियों के कथन पर यदि कोई आचार्य पद का परिहार न करे तो प्रायश्चित्त विधि १६. रोग से अवधावनोत्सुक मुनि की चिकित्सा विधि १७. आचार्य की अनुज्ञा के बिना गणमुक्त होने पर प्रायश्चित्त विधि १८. आचार्य द्वारा क्षेत्र की प्रतिलेखना विधि १६. विदेश या स्वदेश में दूर प्रस्थान करने की विधि २०. उपसंपद्यमान की परीक्षा विधि २१. आभवद् व्यवहार विधि तथा प्रायश्चित्त विधि २२. योग विसर्जन का कारण और विधि २३. गच्छवास को सहयोग देने की विधि इत्यादि। पंचम उद्देशक - इस उद्देशक में साध्वियों के विहार की विधि एवं नियमों पर प्रकाश डाला गया है। प्रवर्तिनी आदि विभिन्न पदों को दृष्टि में रखते हुए विविध विधि विधानों का निरूपण किया गया है है। प्रवर्तिनी के लिए शीत और उष्णऋतु में एक साध्वी को साथ मे रखकर विहार करने का निषेध कहा है। इन ऋतुओं
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