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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/369
में कम से कम दो साध्वियाँ उसके साथ रहनी चाहिए। गणावच्छेदिनी के लिए कम से कम तीन साध्वियों को साथ रखने का नियम है। वर्षाऋतु के लिए उक्त संख्याओं में और एक की वृद्धि की गई है।
अन्य भी जो विधि-विधान इस उद्देशक में उल्लिखित हैं वे ये हैं - १. कृतिकर्म का विधान, २. गर्व से कृतिकर्म न करने पर प्रायश्चित्त विधि। ३. अविधि से कृतिकर्म करने पर प्रायश्चित्त विधि, ४. कृतिकर्म की विधि, ५. आलोचना की विधि एवं उसके दोष, ६. आगम व्यवहारी के अभाव में साध्वियों द्वारा प्रायश्चित्त दान विधि, ७. साध्वियों का श्रमणों के पास तथा श्रमणों का साध्वियों के पास प्रायश्चित्त लेने का विधान, ८. साध्वी का श्रमणों के पास आलोचना करने की विधि, ६. सांभोगिक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की पारस्परिक सेवा कब? कैसे?, १०. श्रमण द्वारा ग्लान श्रमणी की तथा श्रमणी द्वारा ग्लान श्रमण की वैयावृत्य करने की विधि, ११. निर्ग्रन्थ की निर्ग्रन्थी द्वारा तथा निर्ग्रन्थी की निर्ग्रन्थ द्वारा वैयावृत्य कराने पर प्रायश्चित्त का विधान इत्यादि।
इस प्रकार इस उद्देशक की अन्तिम गाथाओं में 'संभोगिक' शब्द का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। संभोग के छः प्रकार बताये हैं। उनमें भी
ओघसंभोग के १२ और उपसंभोग के ६ भेद कहे गये हैं निशीथ के पंचम उद्देशक में वर्णित संभोगविधि के प्रायश्चित्त आदि के वर्णन के अनुसार यहाँ भी संभोग विधि का वर्णन समझ लेना चाहिए। षष्टम उद्देशक - इस उद्देशक के प्रारम्भ में कहा गया है कि साधु को अपने सम्बन्धी के यहाँ से आहार आदि ग्रहण करने की इच्छा होने पर अपने से वृद्ध स्थविर आदि की आज्ञा लिए बिना आहार नहीं लेना चाहिये, अन्यथा स्थविर आदि की आज्ञा के अपने सम्बन्धियों के यहाँ से आहार लेने वाले के लिए छेद अथवा परिहारतप के प्रायश्चित्त का विधान कहा है। आज्ञा मिलने पर भी यदि जाने वाला साधु अल्पबोधी हो तो उसे अकेले न जाकर किसी बहुश्रुत साधु के साथ ही जाना चाहिए।
इस षष्ठ उद्देशक की व्याख्या में जिन विधि-विधानों का समावेश किया गया है वे इस प्रकार है१. जिनकल्पिक और स्थविर कल्पिक के पारस्परिक वैयावृत्य का विधान २. सर्पदंश के लिए ज्ञातविधि का ज्ञान ३. स्वाध्याय तथा भिक्षाभाव द्वारा शिष्य की परीक्षा-विधि ४. उपसर्ग-सहिष्णु की परीक्षा विधि ५. स्वज्ञातिक मुनि द्वारा धर्मकथा करने का निर्देश और विधि ६. आचार्य के चरण-प्रमार्जन की विधि, अविधि से करने पर दोष तथा प्रायश्चित्त विधान ७. आचार्य को गोचरी से
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