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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 289
'कायोत्सर्ग' द्वार में संलेखनाधारी की आराधना विघ्न रहित हों, एतदर्थ कायोत्सर्ग करने का निरूपण किया गया है। छब्बीसवें 'शक्रस्तव' द्वार में क्षपक ( मुनि) द्वारा शक्रस्तव का पाठ करने सम्बन्धी सूचन है । सत्ताइसवें 'पापस्थान- व्युत्सर्जन' द्वार में आराधक द्वारा अठारह पापस्थानों के त्याग करने का प्रतिपादन है। साथ ही अठारह पापस्थानों के त्याग के सम्बन्ध में १८ दृष्टान्तों का निरूपण किया गया है। अट्ठाइसवें 'अनशन' द्वार में आराधक मुनि द्वारा साकार - निराकार के त्यागपूर्वक अनशन ग्रहण करने की विधि का विस्तार से निरूपण है । उनतीसवें 'अनुशिष्टि' द्वार में अनुशिष्टि ( उपदेश या शिक्षारूपवचन) के सम्बन्ध में सत्रह प्रतिद्वारों का वर्णन है। इन सत्रह प्रतिद्वारों का विषय संलेखनाधारी मुनि के लिए परम उपयोगी होने से यहाँ उल्लिखित कर रहे हैं
प्रथम 'मिथ्यात्व परित्याग अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में मिथ्यात्व का दोष बताते हुए मिथ्यात्व को त्यागने का निर्देश है। द्वितीय 'सम्यक्त्व सेवनानुशिष्टि' द्वार में सम्यक्त्व के प्रभाव का निरूपण है। तीसरे 'स्वाध्याय - अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में पंचविध स्वाध्याय का स्वरूप, स्वाध्याय का माहात्म्य, उत्कृष्टादि स्वाध्याय का निरूपण, स्वाध्याय का फल कहा गया है। चौथे 'पंचमहाव्रतरक्षा अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में पंचमहाव्रत की रक्षा सम्बन्धी उपदेशों का प्रतिपादन है। पांचवे 'मदनिग्रह-अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में जाति, कुल, बल, रूप, तप, ऐश्वर्य, श्रुत, और लाभ ऐसे आठ मद के त्याग का निर्देश एवं आठ मदों के सम्बन्ध में आठ दृष्टान्त दिये गये हैं। छट्टे, 'इन्द्रियविजय' प्रतिद्वार में इन्द्रिय पर विजय प्राप्त न करने वाले के दोष और इन्द्रिय निग्रह के गुणों का वर्णन है । इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने सम्बन्धी पाँच दृष्टान्त भी दिये गये हैं। सातवें 'कषायविजय' प्रतिद्वार में कषाय के भेद-प्रभेद, कषाय त्याग, क्रोधादि दोषों का निरूपण एवं क्षमा की प्रधानता कही गई है। आठवें 'परिषहसहन अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में बाईस परिषहों के नाम, और उनके विजय की प्रेरणा का निर्देश है। नौवें 'उपसर्गसहन' प्रतिद्वार में षोडश उपसर्ग का निरूपण एवं उपसर्ग के सहन का उपदेश है। दसवें 'प्रमाद' प्रतिद्वार में प्रमाद त्याग का कथन, प्रमाद के भेद, प्रमाद के कारण, महाज्ञानी का भी भवभ्रमण इत्यादि विषयों का वर्णन है।
ग्यारहवें ‘तपश्चर्या' प्रतिद्वार में तप का माहात्म्य बताते हुए तपश्चर्या का उपदेश दिया गया है। बारहवें रागादि प्रतिषेध में राग-द्वेष के त्याग का निरूपण है तेरहवें 'निदान त्याग' प्रतिद्वार में ६ प्रकार के निदान, निदान करने से होने वाले दोष, निदानों से सम्बन्धित दृष्टान्त आदि का कथन है। चौदहवें 'कुभावना त्याग' में पच्चीस प्रकार की कुभावनाएँ, कुभावना से हानि, कुभावना के त्याग से लाभ
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