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________________ 290/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य का वर्णन है। पन्द्रहवें 'संलेखनाचारपरिहरण' प्रतिद्वार में संलेखना सम्बन्धी पाँच अतिचार, तथा उनके त्याग का उपदेश दिया गया है। सोलहवें 'शुभभावना' प्रतिद्वार में बारह शुभ भावनाओं के नाम स्वरूपादि का वर्णन है। सत्रहवें 'पंचविंशमहाव्रतभावना' प्रतिद्वार में पांच महाव्रत की पच्चीस भावनाओं के नाम स्वरूप आदि का विवरण है। इस प्रकार उक्त १७ द्वारों का वर्णित विषय संलेखनाधारी मुनि के लिए दृढ़ आलम्बन रूप है। तीसवें 'कवच' द्वार में संलेखनाधारी मुनि के लिए क्रमशः पानक का भी प्रत्याख्यान करवाये जाने का निर्देश है इसके साथ ही वेदनाभिभूत क्षपक की चिकित्सा क्षपक के प्रति चतुर्गति दुःख के सम्बन्ध में गुरु का विस्तार से उपदेश वर्णन है। इकतीसवें 'आराधनाफल' द्वार में आराधना का फल सविस्तार बताया गया है। अन्ततः उपसंहार रूप में आराधना का माहात्म्य बताया गया है। उपर्युक्त विवेचन से यह सुनिश्चित हैं कि प्रस्तुत कृति संलेखनाग्रहण (समाधिमरण ग्रहण) करने वाले आराधकों की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं तथा इसमें संलेखना विधि सम्बन्धी सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों का निरूपण हुआ है। भत्तपइण्णयं (भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक) यह प्राकृत में निबद्ध एक पद्यात्मक रचना है। इसमें कुल १७२ गाथाएँ हैं। इसका प्रतिपाद्य विषय भक्तपरिज्ञा नामक अनशनव्रत को विधिपूर्वक ग्रहण करना एवं उसके स्वरूप को विवेचित करना है। ___ अनशनव्रत या संलेखना के तीन प्रकारों में भक्तपरिज्ञा अनशनव्रत प्रथम है। इस कृति के प्रारम्भ में भगवान महावीर को वन्दन करके कृति का अभिधेय बताया गया है। भक्तपरिज्ञा के सविचार और अविचार दो भेद कहे हैं। जो पूर्व विचार पूर्वक संलेखना ली जाती है वह सविचार मरण और मृत्यु की अनायास उपस्थिति को देखकर संलेखना की जाती है, वह अविचारमरण कही जाती है। प्रस्तुत ग्रन्थ में यह बताया गया है कि परमसुख की पिपासा वाला, विषय सुख से विमुख बना हुआ, मोक्षेच्छा से व्याधिग्रस्त मुनि अथवा गृहस्थ मृत्यु के निकट आने पर भक्तपरिज्ञा अनशन की ओर उन्मुख होता है। तत्पश्चात् साधक द्वारा भक्तपरिज्ञा अनशन (मरण) ग्रहण करने की अभिलाषा को गुरु के सम्मुख व्यक्त करने और गुरु द्वारा आलोचना और क्षमापना पूर्वक भक्तपरिज्ञा अनशन ग्रहण करने की स्वीकृति का उल्लेख किया गया है। उसके बाद वह आराधक गुरु के आदेश को शिरोधार्य कर, गुरु को विधिपूर्वक वन्दन करता है, ' भन्तपइण्णयं - पइण्णयसुत्ताई, भा. १, पृ. ३१२-३२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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