SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/321 भी निर्देश दिया गया है। साँतवें अध्ययन में श्रमण की बारह प्रतिमाओं का निरूपण किया गया है। इन प्रतिमाओं का विस्तृत वर्णन करना यहाँ अपेक्षित नहीं है मात्र हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि इसमें बारह प्रतिमाओं को ग्रहण करने की सुव्यवस्थित विधि दी गई है। इसके साथ ही इन प्रतिमाओं का स्वरूप, अवधि एवं आराधना विधि का भी उल्लेख हुआ है। आठवें अध्ययन में पर्युषणाकल्प का वर्णन है। पर्युषणा-वर्षाऋतु में मुनियों के एक स्थान पर स्थिरवास करने का नाम पर्युषणा है। इस नियत अवधि में साधक आत्मा के निकट रहने का प्रयत्न करता है अतः वह परिवसना भी कहा जाता है। पर्युषणा का अर्थ सेवा भी है। इस काल में साधक आत्मा के ज्ञानदर्शनादि गुणों की सेवा-उपासना करता है अतः उसे पज्जुसणा कहते हैं। पर्युषण का एक अर्थ- चातुर्मास हेतु स्थित होना है। पर्युषण का पालन करना भी एक प्रकार का विधि विधान है। वर्तमान में पर्युषण का महत्त्व गृहस्थ साधकों की दृष्टि से भी बढ़ता जा रहा है। यहां इतना अवश्य उल्लेखनीय है कि वर्तमान युग में सर्वाधिक रूप से प्रचलित कल्पसूत्र का 'साधु सामाचारी' नामक अन्तिम अधिकार दशाश्रुतस्कन्ध के इस आठवें अध्ययन से ही उद्धृत किया गया है तथा आदि के दो अधिकार अलग से बनाकर संयुक्त किये गये हैं। नौवें उद्देशक में तीस महामोहनीय स्थानों का वर्णन किया है। जो आत्मा को मोहित करता है या जिसके संसर्ग से आत्मा विवेक शून्य हो जाती है वह मोहनीय कर्म हैं। यह आठ कर्मों में प्रधान माना गया है। यहाँ महामोहनीय के तीस स्थान कर्मबंध रूप कहे गये हैं महामोहनीय के कुछ स्थान निम्न हैं - १. त्रस प्राणियों को जल में डूबोकर मारना २. अग्नि के धुएँ से जीवों की हिंसा करना ३. असत्य आक्षेप लगाना ४. मिश्र भाषा का प्रयोग करना ५. विश्वास घात करना ६. धोखा देना ७. कृतघ्न बनना ८. उपकारी का उपघात करना ६. धर्म से भ्रष्ट करना १०. ज्ञानी का अवर्णवाद (निन्दा) करना ११. न्यायमार्ग से विपरीत प्ररूपणा करना १२. संघ में मतभेद पैदा करना १३. आचार्यादि का अविनय करना १४. किसी को जान-बूझकर दुःखी करना १५. अत्यधिक कामवासना करना आदि। दशवें अध्ययन का नाम आयति-स्थान है। इसमें विभिन्न निदान कर्मों का वर्णन किया गया है। आयति का अर्थ है - जन्म अथवा जाति। निदान- जन्म का हेतु होने के कारण आयति स्थान माना गया है। इस दशा में भगवान महावीर के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है कि निर्ग्रन्थ प्रवचन सर्वोत्तम है। निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सब कर्मों से मुक्ति दिलाने वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy