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322/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
एवं मोक्ष का एक मात्र साधन है। अतः निदान नहीं करना चाहिए और किया हो तो आलोचना-प्रायश्चित्त करके उससे मुक्त हो जाना चाहिये। इसके साथ नौ प्रकार के निदानों का भी उल्लेख किया गया है।
निष्कर्षतः उपर्युक्त सभी अध्ययन किसी न किसी रूप में विधि-निषेध के संकेत देते हैं। इतना ही नहीं, श्रमण जीवन के लिए कौनसा मार्ग सही है? उस मार्ग का अनुसरण किस प्रकार किया जा सकता है? इत्यादि का सूक्ष्मविधान भी बतलाते हैं। दशाश्रुतस्कन्ध की विषयवस्तु पर विचार करते हुए आचार्य देवेन्द्रमुनि' ने कहा है कि असमाधिस्थान चित्तसमाधिस्थान, मोहनीयस्थान और आयतिस्थान में जिन तत्त्वों का संकलन किया गया है, वे वस्तुतः योगविद्या से सम्बद्ध हैं। योग की दृष्टि से चित्त को एकाग्र तथा समाहित करने के लिए ये अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उपासकप्रतिमा और भिक्षुप्रतिमा, श्रावक व श्रमण की कठोरतम साधना के उच्चतम नियमों का परिज्ञान कराते हैं। शबलदोष और आशातना इन दो दशाओं में साधु जीवन के दैनिक नियमों का विवेचन किया गया है और कहा गया है कि इन नियमों का परिपालन होना ही चाहिए। चतुर्थ दशा गणिसम्पदा में आचार्यपद पर बिराजित श्रमण के व्यक्तित्व के प्रभाव तथा शरीरिक प्रभाव का अत्यन्त उपयोगी वर्णन किया गया है।
आचार्य ने दशाश्रुतस्कन्ध के प्रतिपाद्य पर ज्ञेयाचार, उपादेयाचार और हेयाचार की दृष्टि से भी विचार किया है - असमाधिस्थान, शबलदोष, आशातना, मोहनीयस्थान और आयतिस्थान में साधक के हेयाचार का प्रतिपादन है। गणिसम्पदा में अगीतार्थ अनगार के ज्ञेयाचार का और गीतार्थ अनगार के लिए उपादेयाचार का कथन है। चित्तसमाधिस्थान में उपादेयाचार का कथन है। उपासक प्रतिमा में अनगार के लिए ज्ञेयाचार और सागार श्रमणोपासक के लिए उपादेयाचार का कथन है। भिक्षु प्रतिमा में अनगार के लिए उपादेयाचार और सागर के लिए ज्ञेयाचार का कथन है। अष्टमदशा पर्युषणाकल्प में अनगार के आचार का वर्णन है।
- इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि दशाश्रुतस्कन्ध आचार नियमों का प्रतिपादन करने वाला महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और इसकी विषयवस्तु तार्किक ढंग से संयोजित है। व्याख्या साहित्य - दशाश्रुतस्कन्ध पर व्याख्या साहित्य के रूप में भद्रबाहुकृत नियुक्ति, अज्ञातकर्तृकचूर्णि, ब्रह्मर्षि या ब्रह्ममुनिकृत टिप्पणक एवं एक अज्ञातकर्तृक
' त्रीणिछेदसूत्राणि-देवेन्द्रमुनि शास्त्री पृ. १२-१३
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