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________________ 320/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य को असमाधि उत्पन्न होती है। साधकीय जीवन दूषित होता है। अतः ये असमाधिस्थान साधक को जागृत करते हैं, पापकार्यों से बचने का सही मार्ग बताते हैं। ये बीस स्थान साधक के लिए सेवनीय नहीं है। जो सही विधि है उसका आचरण ही भवपरम्परा का छेदक है। . द्वितीय अध्ययन में इक्कीस शबल दोषों का वर्णन किया गया है, जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है और चारित्र मलक्लिन्न होने से क—र (विचित्रवर्णा) हो जाता है वे दोष शबल कहलाते हैं। जैसरात्रिभोजन करना, आधाकर्मआहार ग्रहण करना, जीवहिंसा करना, जानबूझकर सचित्त भूमि पर बैठना, प्रत्याख्यान का भंग करना, मायास्थान का सेवन करना इत्यादि। शबलदोष दुष्प्रवृत्तियों से बचने एवं सत्कार्य करने का विधान प्रस्तुत करते हैं। । तृतीय अध्ययन में तैंतीस प्रकार की आशातनाओं पर प्रकाश डाला गया है। जिस क्रिया के करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का हास होता है उसे आशातना (अवज्ञा) कहते हैं। जैसे- गुरु के आगे शिष्य का चलना, गुरु की समश्रेणी में चलना, गुरु के पूर्व किसी से संभाषण करना, गुरु वचनों की अवहेलना करना, गुरु की भूल निकालना आदि-आदि। ये आशातनाएँ अविधि की परिचायक हैं। इससे स्पष्ट होता हैं कि आशातनाओं से बचने की भी एक विधि है, एक मार्ग है। चतुर्थ अध्ययन में आठ प्रकार की गणिसम्पदाओं का वर्णन हैं। साधुओं अथवा ज्ञानादि गुणों के समुदाय को 'गण' कहते हैं गण का जो अधिपति होता है वही 'गणी' कहलाता है। इसमें गणी की सम्पदा अर्थात् गणि (आचार्य) के गुणों एवं योग्यताओं का वर्णन है। आठ सम्पदाएँ ये हैं- १. आचार-सम्पदा, २. श्रुत-सम्पदा, ३. शरीर-सम्पदा, ४. वचन-सम्पदा, ५. वाचना-सम्पदा, ६. मति-सम्पदा, ७. प्रयोग- सम्पदा और ८. संग्रह परिज्ञा सम्पदा। इन सम्पदाओं के भेद-प्रभेद भी बताये गये हैं। इन संपदाओं में विधिमार्ग के संकेत भी मिलते हैं जैसे- संग्रहपरिज्ञा सम्पदा चार प्रकार की बतलायी है १. वर्षाऋतु में सब मुनियों के लिए योग्य स्थान की परीक्षा करना, २. सब मुनियों के लिए लौटाये जाने वाले पीठ-फलक-शय्या संस्तारक की व्यवस्था करना आदि सांकेतिक विधान है। पाँचवे अध्ययन में १० प्रकार के चित्तसमाधि स्थानों का उल्लेख है। छठे अध्ययन में ग्यारह प्रकार की उपासक प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। इन प्रतिमाओं की सम्यक् आराधना कब, कैसे की जाती है इसकी समुचित विधि का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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