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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/319
संक्षेपतः प्रबलकारण के उपस्थित होने पर अनिच्छा, विस्मृति या प्रमादवश जिन दोषों का सेवन हो जाता है उसकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान करना यही छेदसूत्रों का मूलभूत लक्ष्य रहा है। छेदसूत्रों की वर्णन शैली - छेदसूत्रों में तीन प्रकार की शैली दृष्टिगत होती है१. हेयाचार, २. ज्ञेयाचार, ३. उपादेयाचार। इनका विस्तृत विचार करने पर यह रूप फलित होता है- १. विधिकल्प, २. निषेधकल्प, ३. विधि-निषेधकल्प, ४. प्रायश्चित्तकल्प, ५. प्रकीर्णका
। इनमें से प्रायश्चित्तकल्प के अतिरिक्त अन्य विधिकल्पादि के चार विभाग होते हैं - १. निर्ग्रन्थों के विधिकल्प २. निर्ग्रन्थिनियों के विधिकल्प ३. निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थिनियों के विधिकल्प ४. सामान्य विधिकल्प
इसी प्रकार निषेधकल्प आदि के भी विभाग समझने चाहिए। इस सम्बन्ध में यहाँ और अधिक विस्तृत वर्णन करना संभव नहीं है। ग्रन्थावलोकन से पाठकगण स्वयं ज्ञात कर ले। स्वरूपतः ये छेदसूत्र प्रायश्चित्त विधि-विधान से सम्बन्धित हैं और दोष परिमार्जन के लिए सम्यक विधि प्रक्रिया को प्रस्तुत करने वाले हैं। सर्वप्रथम प्रस्तुत सूत्र की विषयवस्तु पर संक्षेप में प्रकाश डालते हैं। स्थानांगसूत्र में इसका अपरनाम आचारदशा प्राप्त होता है। स्थानांगसूत्र के दसवें स्थान में वर्णित दस दशाओं में इसका नाम होने से संभवतः इस सूत्र का नाम 'दशासूत्र' रखा गया हो। दशाश्रुतस्कंध में दस अध्ययन है इसलिए भी इसका नाम दशाश्रुतस्कंध हो सकता है। यह सूत्र प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें २१६ गद्य सूत्र हैं। ५२ पद्य सूत्र हैं। यह कृति १८३० श्लोक परिमाण है। यहाँ ध्यातव्य है कि छेदसूत्र के दो कार्य हैं- दोषों से बचाना और प्रमादवश लगे हुए दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान करना। इसमें दोषों से बचने का विधान है।
इस सूत्र में विशेष विधि का सामान्य वर्णन प्राप्त होता है, किन्तु जो भी विवरण उपलब्ध हैं वह पापाचार एवं दोषसेवन से बचने के महत्त्वपूर्ण उपाय प्रदान करता है। इसमें यह बताया गया है कि साधक सन्मार्ग में कैसे प्रवृत्त हो? उन्मार्ग की ओर जाने से कैसे बचें? संयम मार्ग की शुद्ध परिपालना कैसे करें? इसके प्रथम अध्ययन में बीस असमाधिस्थानों का वर्णन है। जिन सत्कार्यों के करने से चित्त में शांति हो, आत्मा मोक्षमार्ग में प्रवृत्त रहें, वह समाधि है। जिन दुष्कार्यों के करने से चित्त में अशांत भाव उत्पन्न हो और आत्मा भ्रष्ट हो जाये, वह असमाधि है। असमाधि के बीस प्रकार भी वर्णित हैं - जैसे जल्दी-जल्दी चलना, रात्रि में भूमि प्रमार्जन किये बिना पूंजे चलना, निन्दा आदि करना, क्रोध करना, कलह करना आदि। इन प्रवृत्तियों के करने से स्वयं को एवं अन्य जीवों
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