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________________ 318 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य कहा जाता है कि दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ इन चार छेदसूत्रों का निर्यूहण प्रत्याख्यानपूर्व की तृतीय आचारवस्तु से हुआ है, ऐसा उल्लेख निर्युक्ति एवं भाष्य साहित्य में मिलता है।' दशाश्रुत, कल्प एवं व्यवहार का निर्यूहण भद्रबाहु ने किया यह भी अनेक स्थानों पर निर्दिष्ट है। २ मूलतः छेदसूत्रों की जानकारी अनिवार्य है। प्रायश्चित्त स्वरूप को समझना अधिक अनिवार्य है। ग्रन्थों में दस प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गये हैं इनमें छेद सातवाँ प्रायश्चित्त है। प्रारम्भ से लेकर सात पर्यन्त प्रायश्चित्त वेषयुक्त श्रमण को दिये जाते हैं। अंतिम तीन प्रायश्चित्त श्रमण को वेषमुक्त करके दिये जाते हैं। छेदसूत्रों का विषय- उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात होता है कि साधनामय जीवन में यदि साधक के द्वारा कोई दोष हो जाये तो उससे दोषमुक्त कैसे हुआ जाये, उसका परिमार्जन कैसे किया जाये, यह छेदसूत्रों का सामान्य वर्ण्य विषय है इस दृष्टि से छेदसूत्रों के विषयों को चार भागों में विभाजित किया गया है। १. उत्सर्ग मार्ग, २. अपवादमार्ग, ३. दोषसेवन, ४. प्रायश्चित्त विधान । 9. जिन नियमों का पालन करना साधु साध्वी वर्ग के लिए अनिवार्य है वह उत्सर्गमार्ग है । २. अपवाद का अर्थ है - विशेष विधि। वह दो प्रकार की है १ . निर्दोष विशेष विधि और २. सदोष विशेष विधि | सामान्य विधि से विशेष विधि बलवान होती है। आपवादिक विधि सकारण होती है । उत्तरगुण प्रत्याख्यान में जो आगार (छूट या अपवाद) रखे जाते हैं ये सब निर्दोष अपवाद हैं। परन्तु प्रबलता के कारण मन न होते हुए भी विवश होकर जिस दोष का सेवन करना पड़ता है या किया जाये, वह सदोष अपवाद विधि है । प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि हो जाती है । अतः यह मार्ग साधक को आर्त्त - रौद्र ध्यान से बचाता है। यह मार्ग प्रशंसनीय तो नहीं है किन्तु इतना निन्दनीय भी नहीं है। चूंकि अनाचार किसी भी रूप में अपवाद विधि का अंग नहीं बन सकता है। ३. दोष सेवन का अर्थ है - उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का भंग करना। ४. प्रायश्चित्त विधान का अर्थ है- खंडित नियम के शुद्धिकरण के उद्देश्य से की जाने वाली विशिष्ट विधि प्रक्रिया प्रायश्चित्त है। १ (क) व्यवहार भाष्य ४१७३ (ख) आचारदसा कप्पो, ववहारो नवमपुव्वणी संदो, पंचकल्प भाष्य २३ २ (क) वंदामि भद्दबाहुं, पाईणंचरिम सयल सुयनाणीं । सुत्तस्स कारणमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे ।। (ख) पंचकल्पभाष्य १२ दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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