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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/31
पायचंदगच्छ, स्थानकवासी, तेरापंथी आदि में किनमें कौन-कौन से विधि-विधान प्रचलित हैं ? इसी प्रकार दिगम्बरपरम्परा एवं उनकी बीसपंथी, तारणपंथी आदि शाखाओं में विधि-विधानों का क्या स्वरूप हैं ? कौन से विधि-विधान एक दूसरे के समतल्य है? तथा कौन से विषमता को लिये हुए हैं ? इत्यादि का आलोड़न कार्य भी नहीं हुआ है। अतः इन मुद्दों पर प्रामाणिक एवं शोधपरक विवेचना करना ही मेरा ध्येय और प्रयास है।
मेरे कार्य की सफलता तो विद्वद्वर्ग एवं समाज के सहयोग पर निर्भर करेगी, क्योंकि विधि-विधान संबंधी समस्त ग्रन्थों की उपलब्धि एक कठिन कार्य है। उनको उपलब्ध करके उनकी विषयवस्तु का प्रतिपादन करना तथा उनमें प्रतिपादित विधि का ऐतिहासिक अध्ययन करना और पारस्परिक प्रभावों की दृष्टि से अध्ययन करना एक व्ययसाध्य और समयसाध्य कार्य है। प्रयत्न और पुरूषार्थ करना मेरे अधिकार में है किन्तु कार्य की संपूर्णता और परिणाम की सफलता यह भविष्य के गर्भ में है। शोध के क्षेत्र में कार्य करते हुए जो निष्कर्ष प्राप्त होगें, वें परम्परागत समाज को कितने ग्राह्य होंगे यह भी एक समस्या मेरे समक्ष रही हुई हैं, फिर भी एक जैन साध्वी की मर्यादा का ध्यान रखते हुए ईमानदारी पूर्वक तटस्थ दृष्टि से निष्कर्षों को प्रस्तुत करने का प्रयत्न अवश्य करूंगी।
अन्ततः मेरी ऐसी धारणा है कि यदि विधि-विधान और कर्मकाण्ड के संबंध में तटस्थ दृष्टि से कोई काम किया जायेगा और उसके जो परिणाम सामने आयेंगे वे विश्रृंखलित जैन समाज को एक सम्यक दिशा देने में और विभिन्न वर्गों को एक दूसरे के निकट लाने में सहयोगी होंगे।
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