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430/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
अर्हदभिषेकविधि
यह रचना वादीवेताल श्री शान्तिसूरि ने की है।' इस ग्रन्थ पर शीलाचार्य ने पंजिका लिखी है। यह कृति संस्कृत के ६८ श्लोकों में रची गई हैं। इसका गुजराती भाषान्तर हो चुका है। वह लालचन्द भगवानजी गाँधी ने किया है। यह रचना पढ़ने जैसी है। इसमें अभिषेक विधि का प्राचीनतम स्वरूप प्रस्तुत हुआ है। इसका रचनाकाल विक्रम की १० वीं शती के आस-पास का सिद्ध होता है।
यह कृति जिनस्नात्रविधि के साथ प्रकाशित है।
इस कृति की विषयवस्तु संक्षेप में इस प्रकार है - यह कृति पाँच पों में विभक्त है। इन पों में क्रमशः १०, १६, ३०, १८ एवं २४६८ श्लोक हैं। इस कृति का अपरनाम 'जिनाभिषेकविधि' है।
इसके प्रथम पर्व में अर्हत (जिन प्रतिमा के) स्नात्र को मंगल लक्ष्मी कारक माना है साथ ही अर्हत् स्नात्र के लिए उपयोग में आने वाले द्रव्यों का उल्लेख किया है। अर्हदभिषेक का फल-सुख, संपत्ति और मोक्ष बताया है। तीर्थकरों के जन्म प्रसंग को लेकर देवों द्वारा मेरुपर्वत पर जो अभिषेक किया जाता है उसका स्मरण किया गया है। उस समय के भक्तिवन्त देवों का वर्णन किया गया है। इसके साथ यह भी उल्लेख किया है सर्व प्रकार की रक्षा करने के लिए और विरोध को दूर करने के लिए अर्हदभिषेक का विधान किया जाता है तथा यह अभिषेक कृत्य तीर्थंकर देवों का मुख्य विधान होने के कारण एवं परम्परागत आचरण होने के कारण इसका अनुकरण अवश्य किया जाना चाहिए। द्वितीय पर्व में जिनबिम्ब को वेदी पर स्थापित करने का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही स्नात्र करने वाले श्रावक के गुण एवं वस्त्रादि धारण की विधि बतलायी गयी है। इसके अनन्तर दशदिक्पालों को आमन्त्रित करने की विधि का उल्लेख किया है।
तृतीय पर्व में जिनप्रतिमा के साक्षात् स्वरूप का वर्णन करके धूमावली खेना, जिनबिम्ब के मस्तक पर पुष्प का आरोपण करना, जल स्नात्र करना, विविध स्नात्रों के बीच-बीच में सुगन्धित धूप देना, घृत-खीर-दही और दूध की धाराओं से स्नपन क्रिया करना, इत्यादि का निर्देश दिया गया है। इसके आगे गंगा-सिंधु आदि नदियों का परिचय पूर्वक स्मरण और आह्वान किया गया है। तदनन्तर पद्म आदि महाद्रहों में निवास करने वाली छ: देवियों को अपने-अपने स्थान से जिनाभिषेक हेतु जल लाने के लिए आमंत्रित किया गया है। पुनः जिनाभिषेक (जिनबिम्ब का
' यह कृति वि.सं. २०२१, जैन साहित्य विकास-मण्डलम् वीलेपारले-मुंबई, ५६ से प्रकाशित है।
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