SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 293 दर्शन, ज्ञान, चारित्र और प्रव्रज्या के अतिचारों की आलोचना करनी चाहिए, क्योंकि आलोचना करने वाला साधु ही कर्म क्षय करता है । तत्पश्चात् आलोचना, आत्म शल्यत्याग आदि का विस्तार से निरूपण किया गया है। समाधिमरण के कारणभूत चौदह द्वार बताये गये हैं वे समाधिमरण ग्रहण करने की विधि को सूचित करते हैं उन द्वारों का नामोल्लेख पूर्वक सामान्य वर्णन इस प्रकार प्रस्तुत हैं- १. आलोचना, २. संलेखना, ३. क्षमापना ४. काल, ५. उत्सर्ग, ६. उद्ग्रास, ७. संथारा, ८. निसर्ग, ६. वैराग्य, १०. मोक्ष, 99. ध्यानविशेष, १२. लेश्या १३. सम्यक्त्व, और १४. पादोपगमन । प्रथम द्वार में निःशल्य होकर आलोचना करने का निर्देश है। साथ ही आलोचना के दस दोष बताये गये हैं । द्वितीय द्वार में संलेखना के आभ्यन्तर और बाह्य भेदों का निरूपण है। साथ ही आतुरप्रत्याख्यान एवं पंचमहाव्रतों की रक्षा आदि के उपायों का विस्तार से निर्देश है। तृतीय द्वार में आचार्य, उपाध्याय, साधर्मिक, कुल, गण सभी से क्षमायाचना करने और उनको क्षमा करने का तथा आत्मशल्योद्धार आदि का निरूपण है। चतुर्थ द्वार में समाधिमरण का उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य काल बताया गया है। पंचम द्वार में वेदना सहन करने का उपदेश दिया गया है। इसी क्रम में गर्भावास आदि दुःखों तथा विविध जातिगत जन्मों के दुःखों का निरूपण किया गया है तथा इसके माध्यम से निर्वेद जनक उपदेश दिया गया है। आगे के द्वारों में शरीर से ममत्व का त्याग तथा सोलह प्रकार के रोगांतकों को सहन करने में सनत्कुमार चक्रवर्ती का दृष्टान्त दिया है । तृष्णा - परिषह के लिए प्राण त्याग करने वाले मुनिचन्द्र, शीत - परिषह में राजगृह के बाहर सिद्धि को प्राप्त चार साधुओं का दृष्टान्त, उष्ण परिषह के लिए सुमनभद्र ऋषि, क्षमा में आर्यरक्षित आदि के दृष्टान्त वर्णित हैं। अन्तिम चतुर्दश पादपोपगमन द्वार में पादपोपगमन अनशन का स्वरूप बताते हुए कहा है कि त्रस जीवों से रहित, एकान्त, आवागमनरहित, निर्दोष एवं विशुद्ध स्थंडिल भूमि पर अभ्युद्यत मरण करना चाहिए। पूर्वभव के वैर से कोई देव उपसर्ग करें, संहार करें या कैसा भी उपद्रव करें परन्तु पादपोपगमन अनशन स्वीकार करने वाला साधक निश्चल रहें । इसके अतिरिक्त इस प्रकीर्णक में द्वादश भावनाओं का निरूपण प्राप्त होता है । संवेग को दृढ़ करने वाली इन भावनाओं को श्रमण और श्रावक दोनों द्वारा भावित करने का उपदेश है। अन्त में पण्डितमरण ग्रहण करने का उपदेश देते हुए कहा गया है कि मूढ़ लोग अनेक दोषों से युक्त मनुष्य जन्म के अल्प सुख को देखकर उपदेश को हृदय में धारण नहीं करते हैं। सारे सांसारिक दुःखों को मनुष्य वैसा ही सुख मानता है जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy