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________________ 294 / समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य नीम के वृक्ष पर उत्पन्न कीड़ा मधुरता से अनभिज्ञ नीम की कटुता को ही मधुर मानता है । इसलिए लोकसंज्ञा का त्यागकर पण्डितमरण मरना चाहिए । महापच्चक्खाणपइण्णयं ( महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक) महाप्रत्याख्यान नामक यह प्रकीर्णक' प्राकृत भाषा की एक पद्यात्मक रचना है। यह ग्रन्थ मूलतः समाधिमरण स्वीकार करने की विधि से सम्बन्धित है। महाप्रत्याख्यान का शाब्दिक अर्थ सबसे बड़ा प्रत्याख्यान होता है। प्रत्याख्यान का तात्पर्य त्याग से है। इसके अनुसार सबसे बड़ा त्याग महाप्रत्याख्यान कहलाता है। व्यक्ति के जीवन में सबसे बड़ा त्याग यदि कोई है तो वह है- देह त्याग । प्रत्याख्यान पूर्वक देह त्याग करना ही समाधिमरण है। समाधिमरण ग्रहण करने की विधि का विशेष उल्लेख होने से ही प्रस्तुत कृति को महाप्रत्याख्यान नाम दिया गया है। पाक्षिकवृत्ति' में महाप्रत्याख्यान का परिचय देते हुए कहा गया है कि जो स्थविरकल्पी जीवन की सन्ध्या वेला में विहार करने में असमर्थ होते हैं, उनके द्वारा जो अनशनव्रत ( समाधिमरण ) स्वीकार किया जाता है, उसका जिसमें विस्तार से वर्णन किया गया हो, उसे महाप्रत्याख्यान कहते हैं । प्रस्तुत कृति के रचनाकार के सम्बन्ध में कहीं पर भी कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता है। नन्दीसूत्र, पाक्षिकसूत्र आदि में जो संकेत मिलते हैं उसके आधार पर मात्र यही कहा जा सकता है कि यह पाँच वीं शताब्दी या उसके पूर्व के किसी स्थविर आचार्य की कृति है तथा इसका रचनाकाल भी ईस्वी सन् पाँच वीं शताब्दी के पूर्व का है। इस प्रकीर्णक में कुल १४२ गाथाएँ हैं जिनमें समाधिमरण ग्रहण करने की विधि से सम्बन्धित निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हुए सर्वप्रथम तीर्थंकरों, जिनों, सिद्धों और संयमियों को प्रणाम किया गया है। उसके बाद समाधिमरण ग्रहण करने वाला क्रमशः किन-किन का त्याग करें एवं उसे किस विषय का उपदेश दिया जाये, इत्यादि पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि समाधिमरण ग्रहण करने वाला साधक प्रथम बाह्य एवं आभ्यन्तर समस्त प्रकार की उपधि का मन, वचन एवं काया तीनों प्रकार से त्याग करें। फिर सभी जीवों से क्षमायाचना करें। तत्पश्चात् कृत पापों की निन्दा, गर्हा और आलोचना करें। शरीर संबंधी चारों प्रकार के आहार, उपकरण तथा सर्व 9 यह प्रकाशन हिन्दी अनुवाद के साथ सन् १६६१, ' आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर' से हुआ है। २ पाक्षिकसूत्र, पृ. ७८, उद्धृत महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक भूमिका पृ. ६ Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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