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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/337 पर चिन्तन किया गया है। शय्या संस्तारक' का अन्तर बताया गया है। उपधि के विवेचन में अवधियुक्त और उपगृहीत ये दो प्रकार बताये हैं। जिन कल्पिकों के लिए बारह प्रकार की, स्थविर कल्पिकों की लिए चौदह प्रकार की और साध्वियों के लिए पच्चीस प्रकार की उपधि अवधि युक्त कही है। तीसरे उद्देशक में भिक्षाग्रहण में लगने वाले दोषों और उनकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान है, अन्य दोषों के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया है चौथे उद्देशक में कायोत्सर्ग के विविध प्रकार, सामाचारी, राजा, अमात्य, राजपुरोहित, श्रेष्ठि, सार्थवाह, गणधर आदि के लक्षण, संरंभ, समारंभ और आरंभ के भेद प्रभेदादि का उल्लेख हुआ है। पाँचवे उद्देशक में शय्या के चौदह प्रकार, संभोग का अर्थ, संभोगिक सम्बन्ध को समझाने के लिए कुछ ऐतिहासिक आख्यान दिये हैं। छठे उद्देशक में मैथुन सम्बन्धी दोष और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त कहे गये हैं। सातवें उद्देशक में कामी भिक्षु के लिए पत्र पुष्पादि की मालाएँ बनाना पहनना आदि का निषेध किया है विकृत आहार का भी निषेध किया गया है। आठवें उद्देशक के प्रांरभ में अकेला साधु चतुर्थ महाव्रत की सुरक्षा के लिए क्या-क्या न करे उसका निर्देश है। अन्त में स्त्री और पुरुष के आकारों के विषय में कुछ आवश्यक बातें कही गई हैं। नवमें उद्देशक में मुख्यतः पिण्ड का विचार किया गया है। उसमें साधु को किस-किस के निमित्त का बना हुआ आहार कल्पित नहीं होता है वह बताया गया है तथा साधु को कहाँ-कहाँ आहार के लिए नहीं जाना चाहिए निषिद्ध स्थान में जाने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त भी कहे गये हैं। दशवें उद्देशक में आधाकर्मिक आदि आहार के दोषों का सेवन करने या, रुग्ण की उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। वर्षावास-प!षणा के एकार्थक शब्द दिये गये हैं। ग्यारहवें उद्देशक में पात्र-ग्रहण की चर्चा है, भय के चार प्रकार कहे हैं, अयोग्य की दीक्षा का निषेध किया है और अठारह, बीस एवं दस प्रकार के दीक्षा के अयोग्य पुरूष बतलाये गये हैं। बारहवें उद्देशक में त्रसप्राणी सम्बन्धी बन्धन मुक्ति, प्रत्याख्यान, भंग आदि का वर्णन हुआ है। तेरहवें उद्देशक में सचित्त पृथ्वी आदि का स्पर्श करना, धात्रादि पाँच पिण्ड द्वारा भिक्षा ग्रहण करना, वमन विरेचन कर्म करना आदि साधु के लिए दोषकारी कहा है और इनका प्रायश्चित्त विधान भी कहा गया है। चौदहवें उद्देशक में पात्र सम्बन्धी दोषों का निरूपण कर उससे मुक्त होने के ' शय्या सम्पूर्ण शरीर के बराबर होती है और संस्तारक ढाई हाथ लम्बा होता है। २ संभोग - यथोक्त विधि से एकत्र आहारोपभोग । जिन साधुओं में परस्पर खान-पान आदि का व्यवहार होता है, वे सांभोगिक कहलाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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