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336 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
निशीथभाष्य के रचयिता संघदासगणि है । प्रस्तुत भाष्य की अनेक गाथाएँ बृहत्कल्प और व्यवहारभाष्य में हैं। इसमें अनेक रसप्रद सरस कथाएँ भी है। संक्षेपतः तः यह भाष्य विविध दृष्टियों से श्रावकाचार एवं तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान का निरूपण करता है।
निशीथचूर्णि
निशीथसूत्र पर दो-दो चूर्णियाँ निर्मित हुई हैं किन्तु वर्तमान में उस पर एक ही चूर्णि उपलब्ध है। निशीथचूर्णि के रचयिता जिनदासगणि महत्तर हैं। इस चूर्णि को विशेष चूर्णि कहते हैं। यह चूर्णि मूलसूत्र, निर्युक्ति एवं भाष्य गाथाओं के विवेचन के रूप में है। इसकी भाषा संस्कृत मिश्रित प्राकृत है।
निशीथचूर्णि में निशीथ के मूल भावों को स्पष्ट करने के लिए कुछ नये तथ्य चूर्णिकार ने अपनी ओर से दिये हैं। निशीथसूत्र के बीस अध्ययनों का संक्षिप्त सार कहा जा चुका है। यहाँ निशीथ चूर्णि में प्रायश्चित्त विधान के योग्य और विशेष जो भी दोष या अपराधपूर्ण क्रियाओं का निरूपण किया गया है उनका संक्षिप्त विवेचन यह हैं
प्रारम्भ में अरिहंतादि को नमस्कार किया गया है तथा आचार्य, अग्र, प्रकल्प, चूलिका, और निशीथ का निक्षेप पद्धति से चिन्तन किया गया है। निशीथ का अर्थ अप्रकाश-अधंकार किया है। आचार का विशेष कथन करते हुए निर्युक्ति गाथा को भद्रबाहुकृत बताया है। आगे चार प्रकार के प्रतिसेवक पुरुष बताये गये हैं जो उत्कृष्ट, मध्यम अथवा जघन्य कोटि के होते हैं। इन पुरुषों का विविध भंगों के साथ विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसी प्रकार स्त्री और नपुंसक प्रतिसेवकों का भी स्वरूप बताया गया है। आगे षड्जीवनिकाय, अहिंसादि छः व्रत, पिण्डविशुद्धि आदि का वर्णन किया गया है । पुनः पीठिका का उपसंहार करते हुए यह कहा गया है कि निशीथ पीठिका का सूत्रार्थ बहुश्रुत को ही देना चाहिए, अयोग्य पुरुष को नहीं।
प्रथम उद्देशक में चतुर्थ महाव्रत का विस्तार से विवेचन है। दूसरे उद्देशक में द्रव्यसंस्तव चौसठ प्रकार का बताया गया है उसमें चौबीस प्रकार के धान्य, चौबीस प्रकार के रत्न, तीन प्रकार के स्थावर, दो प्रकार के द्विपद, दस प्रकार के चतुष्पद आते हैं। इसके साथ ही शय्यातर कौन होता है, वह शय्यातर कब बनता है, उसके पिण्ड के प्रकार, अशय्यातर कब बनता है, सागारिक पिण्ड के ग्रहण से दोष, किस परिस्थिति में सागारिक पिण्ड ग्रहण किया जा सकता है इत्यादि विषयों
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