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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/587 इस अंगविद्याशास्त्र की विषयवस्तु अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि यह ग्रंथ भारतीय वाङ्मय में अपने प्रकार का एक अपूर्व सा महाकाय ग्रन्थ है। विश्व वाङ्मय में इतना विशाल, इतना बहुआयामी दूसरा एक भी ग्रन्थ अद्यापि पर्यन्त देखने में नहीं आया है। फलादेश विषयक विधि-विधान का भी यही एक मात्र प्राचीन ग्रन्थ होना चाहिए। प्रस्तुत ग्रन्थ का परिशिष्ट भाग भी अतिसमृद्ध हैं। वह नवीनतमरूप से पाँच भागों में विभाजित है। इन परिशिष्टों की सामग्री पठनीय हैं। और वह संक्षेप में निम्न हैं - पहला परिशिष्ट- इस परिशिष्ट में अंगविद्या के साथ सम्बन्ध रखने वाले एक प्राचीन 'अंगविद्या' विषयक अपूर्ण ग्रन्थ को प्रकाशित किया है। इस ग्रन्थ का आदि-अन्त न होने से यह कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ है या किसी ग्रन्थ का अंश है यह निर्णय नहीं हो पाया है। दूसरा परिशिष्ट- इस परिशिष्ट में अंगविद्याशास्त्र के शब्दों का अकारादि क्रम से कोश दिया गया है, जिसमें 'अंगविज्जा' के साथ सम्बन्ध रखने वाले सब विषयों के विशिष्ट एवं महत्त्व के शब्दों का संग्रह किया गया है। प्रायोगिक दृष्टि से जो शब्द महत्त्व के प्रतीत हुए हैं इनका और देश्य शब्दादि का भी संग्रह इसमें किया गया है। जिन शब्दों के अर्थादि का पता नहीं चला है वहाँ प्रश्नचिन्ह (?) रखा है। सिद्धसंस्कृत प्रयोगादि का भी संग्रह किया है। इस तरह भाषा एवं सांस्कृ तिक दृष्टि से इसको महर्दिक बनाने का यथाशक्य प्रयत्न किया गया है। तीसरा परिशिष्ट- इस परिशिष्ट में अंगविद्याशास्त्र में प्रयुक्त क्रिया रूपों का संग्रह है। यह संग्रह प्राकृत भाषाविदों के लिए बहुमूल्य खजानारूप है। चौथा परिशिष्ट- इस परिशिष्ट में मनुष्य के अंगों के नामों का संग्रह है जिसको संपादक प्रवर ने औचित्यानुसार तीन विभागों में विभक्त किया है। पहले विभाग में स्थान निर्देशपूर्वक अकारादि क्रम से अंगविद्याशास्त्र में प्रयुक्त अंगों के संग्रह है। दूसरे विभाग में अगंविद्याशास्त्र प्रणेता ने मनुष्य के अंगों के आकार-प्रकारादि को लक्ष्य में रखकर जिन २७० द्वारों में उनको विभक्त किया है उन द्वारों के नामों का अकारादिक्रम से संग्रह है। तीसरे विभाग में ग्रन्थकर्ता ने जिस द्वार में जिन अंगो का समावेश किया है, उनका यथाद्वार विभागतः संग्रह किया है। पाँचवा परिशिष्टइस परिशिष्ट में अंगविद्याशास्त्र में आने वाले सांस्कृतिक नामों का संग्रह है। यह संग्रह मनुष्य, तिर्यंच, वनस्पति व देव-देवी विभाग में विभक्त है। ये विभाग भी अनेकानेक विभाग, उपविभाग, प्रविभाग में विभक्त किये गये हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से यह परिशिष्ट सब परिशिष्टों में बड़े महत्त्व का है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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