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________________ 586/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य 'निजसंस्तव' नामक है। तीसरा 'शिष्योपख्यान' नामक अध्याय है इसमें अंगविद्याशास्त्र को पढ़ने वाले शिष्यों की योग्यायोग्यता, उनके गुण-दोष और अंगशास्त्र पठन के योग्य-अयोग्य स्थानादि का वर्णन हुआ है। चौथा 'अंगस्तव' नामक अध्याय है इसमें अंगविद्या का माहात्म्य बताया गया है। पाँचवां 'मणिस्तव' नामक अध्याय है। छठे अध्याय का नाम 'आधारण' है इस अध्याय में अंगविद्याशास्त्र गंभीर होकर प्रश्न करने वाले के प्रश्न का श्रवण एवं अवधारण किस प्रकार करें, उसकी विधि बतायी गयी है। सातवाँ अध्याय 'व्याकरणोपदेश' नामक है इसमें अंगविद्याशास्त्रज्ञ गंभीर होकर किस प्रकार फलोदश करें उसकी विधि का वर्णन है। आठवाँ ‘भूमिकर्म' अध्याय है। इसमें ३० पटल (अवान्तर प्रकार) कहे गये हैं। प्रायः सभी पटलों में उन-उन के नामानुसार फलादेश करने की विधि कही गई हैं, जैसे 'हसितविभाषा नामक पटल' में चौदह प्रकार से हँसना और तद्नुसार फलादेश की विधि बतायी है। यही प्रकार अन्य पटलों में भी जानना चाहिये। नवमाँ 'अंगमणी' नामक अध्याय है इस अध्याय में २७० द्वारों का निर्देश हुआ है साथ ही तद्विविषयक फलादेश विधि भी कही गई हैं। दशवाँ 'आगमन' अध्याय है इसमें आगमन विषयक फलादेश की विधि प्रतिपादित है। इसी प्रकार ग्यारहवाँ पृष्ट, बारहवाँ योनि, तेरहवाँ योनिलक्षण व्याकरण, चौदहवाँ लोभद्वार, पन्द्रहवाँ समागमद्वार, सोलहवाँ प्रजाद्वार, सत्रहवाँ आरोग्यद्वार, अठारहवाँ जीवितद्वार, उन्नीसवाँ कर्मद्वार, बीसवाँ वृष्टिद्वार, इक्कीसवाँ विजयद्वार, बाईसवाँ प्रशस्त, तेईसवाँ अप्रशस्त, चौबीसवाँ जातिविजय, पच्चीसवाँ गोत्र, छब्बीसवाँ नाम, सत्ताईसवाँ स्थान, अट्ठाईसवाँ कर्मयोनि, उनतीसवाँ नगरविजय, तीसवाँ आभरणयोनि, इगतीसवाँ वस्त्रयोनि, बत्तीसवाँ धान्ययोनि, तेतीसवाँयानयोनि, चौतीसवाँ संलापयोनि, पैंतीसवाँ प्रजाविशुद्धि, छत्तीसवाँ दोहद, सैंतीसवाँ लक्षण, अड़तीसवाँ व्यंजन, उनचालीसवाँ कन्यावासन, चालीसवाँ भोजन, इकतालीसवाँ वरियगंडिक, बयालीसवाँ स्वप्न, तेंतालीसवाँ प्रवास, चौवालीसवाँ प्रवासअद्धाकाल, पैंतालीसवाँ प्रवेश, छियालीसवाँ प्रवेशन, सैंतालीसवाँ यात्रा, अड़तालीसवाँ जय, उनचासवाँ पराजय, पचासवाँ उपद्रुत, इक्यावनवाँ देवताविजय, बावनवाँ नक्षत्रविजय, त्रेपनवाँ उत्पात, चौपनवाँ सारासार, पचपनवाँ निधान, छप्पनवाँ निविसूत्र, सत्तावनवाँ नष्टकोशक, अट्ठावनवाँ चिंतित, उनसठवाँ काल और साठवाँ अध्याय पूर्वमेवविपाक एवं उपपत्तिविजय इन दो भागों में विभक्त है। ये सभी अध्याय प्रायः अपने-अपने नाम के अनुसार विषयों का विधिपूर्वक फलादेश करने वाले हैं। कुछ अध्याय तविषयक वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, आदि के नामों का सविस्तृत निरूपण करने वाले हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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