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________________ 392 / योग-मुद्रा- ध्यान सम्बन्धी साहित्य इस सन्दर्भ में यह कहना भी अनिवार्य है कि भारतीय योगियों अभिमतानुसार प्राणिमात्र की आयु का अनुपात श्वास-प्रश्वास की गति पर निर्भर करता है। उनका कहना हैं कि जो प्राणी एक निशचित समय में जितनी कम सांस लेता है उसकी आयु उतनी ही लम्बी होती है और जो उतने ही समय में अधिक श्वास लेता है उसकी आयु उतनी ही कम होती है, किन्तु जैनाचार्यों ने आयु की दीर्घता में श्वास-प्रश्वास क्रिया को मात्र निमित्त माना है, उपादान नहीं । अतः स्पष्ट हैं कि श्वास-प्रश्वास क्रिया के अनुपात पर हमारा जीवन, स्वास्थ्य, संकल्प एवं एकाग्रता निर्भर करती है। इसलिए प्राणायाम का प्रयोग सदैव करना चाहिए । प्रेक्षाध्यान : लेश्या - ध्यान यह कृति' युवाचार्य महाप्रज्ञ की है। इसमें लेश्या - ध्यान की चर्चा विस्तार से की गई है। हमारी शोध का प्रयोजन लेश्या - ध्यान - विधि से है उस विषय का भी इसमें सम्यक् निरूपण उपलब्ध होता है। लेश्या ध्यान का प्रयोग करने से पूर्व 'लेश्या' की सामान्य जानकारी होना अपेक्षित है। लेश्या जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। लेश्या अर्थात् व्यक्ति की शुभ-अशुभ चित्तवृत्तियाँ । लेश्या दो प्रकार की होती है १. द्रव्य लेश्या और २. भाव लेश्या । द्रव्य लेश्या भौतिकरूप और भाव लेश्या चैतन्य रूप है। इनमें भी भाव लेश्या छ : प्रकार की कही गई हैं १. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, ३ . कापोतलेश्या, ४. पीत लेश्या, ५. पद्मलेश्या और ६. शुक्ललेश्या । प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ अप्रशस्त हैं और अन्त की तीन लेश्याएँ प्रशस्त हैं। कृष्ण लेश्या का वर्ण काला, नील लेश्या का वर्ण नीला, कापोत लेश्या का वर्ण कबूतर या राख जैसा, तेजोलेश्या का वर्ण लाल, पद्म लेश्या का वर्ण पीला और शुक्ल लेश्या का सफेद होता है। - हमारा सारा जीवन-तंत्र रंगों के आधार पर चलता है। आज मनोवैज्ञानिकों ने यह खोज की है रंग कि व्यक्ति के अन्तर्मन को, अवचेतन मन को और मस्तिष्क को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला है। रंग स्थूल व्यक्तित्व को भी प्रभावित करता है और सूक्ष्म व्यक्तित्व को भी प्रभावित करता है वह तैजस् शरीर और लेश्या तंत्र को भी प्रभावित करता है । रंगों का अखंड साम्राज्य है। यदि हम रंगों की क्रियाओं, गुण-दोषों और उनके मनोवैज्ञानिक प्रभावों को समझ लें, तो व्यक्तित्व के रूपान्तरण में हमें बहुत बड़ा सहयोग मिल सकता है। १ यह कृति सन् १६८६ में जैन विश्व भारती- लाडनू से प्रकाशित हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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