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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 83
इसमें मृत्यु सुनिश्चित होने के कारण सल्लेखना करने का विधान, यथाकाल मृत्यु के समय सल्लेखना करने की विधि, संघ में जाने का विधान, मरते समय धर्माराधना करने का फल, समाधिमरण के लिए शरीर को कृश करना आवश्यक, समाधिमरण की विधि, आहारत्याग की विधि, सम्यक्त्व का माहात्म्य, अर्हद्भक्ति का माहात्म्य, भाव नमस्कार का माहात्म्य, पाँच महाव्रतों का महत्त्व, विधिपूर्वक समाधिमरण से आठवें भव में मोक्ष इत्यादि का प्रामाणिक विवेचन हुआ है। निष्कर्षतः यह श्रावकाचार विधि का अतिउपयोगी ग्रन्थ है।
सावयधम्मदोहा
यह कृति' दोहात्मक अपभ्रंश भाषा में रचित है। इसमें श्रावकधर्म का वर्णन संक्षेप एवं सरल शब्दों में हुआ है। इसमें २२४ पद्य हैं। इसके रचयिता का नाम विवादास्पद है। कहीं देवसन तो कहीं लक्ष्मीचन्द्र द्वारा रचित होने का उल्लेख मिलता है। इसका रचना समय विक्रम की १० वीं शती माना गया है। इस कृति के प्रारम्भ में मनुष्यभव की दुर्लभता बताकर, देव, गुरु, धर्म के श्रद्धान का उपदेश देकर ग्यारह प्रतिमा रूप श्रावकधर्म का निर्देश किया गया है। आगे पाँच उदुम्बरफल और तीनों मकारों के त्यागरूप आठमूलगुण का वर्णन, अगलित जल-पान का निषेध, चर्मस्थित घृत - तेलादि का परिहार, पात्र - कुपात्रादि को दान देने का फल, उपवास का माहात्म्य, इन्द्रिय-विषयों एवं कषायों को जीतने का उपदेश और धर्म-धारण करने का सुफल बताकर जिनप्रतिमा के अभिषेक - पूजन करने की प्रेरणा की गई है।
अन्त में जिनालय, जिनबिम्बनिर्माण का उपदेश देकर जिनमन्दिर में तीन लोक के चित्र आदि विधानों का फल बताया गया है और 'अहं' आदि मंत्रों के जाप-ध्यान की प्रेरणा कर ग्रन्थ पूरा किया गया है।
संक्षेप में कहा जाये तो वर्तमानकाल के अनुरूप श्रावकधर्म का वर्णन कर कृति नाम को सार्थक किया है। परवर्ती अनेक श्रावकाचारों में इसके दोहे उद्धृत किये गये हैं।
षट्स्थानप्रकरण
इसके रचयिता जिनेश्वरसूरि हैं जो वर्धमानसूरि के शिष्य तथा नवांगी वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरिके गुरू थे। उन्होंने वि.सं. १०८० में हारिभद्रीय अष्टक प्रकरण पर वृत्ति लिखी है। इनका काल विक्रम की ११ वीं शती है।
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यह कृति पं. हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित एवं कारंजा से प्रकाशित है।
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