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82/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
भगवान की आज्ञा से त्यागने योग्य सांसारिक विषयों को जानते हुए भी मोहवश छोड़ने में असमर्थ हैं उसे गृहस्थधर्म पालन करने की अनुमति है। इसके साथ ही पाक्षिक श्रावक के लिए पालन करने योग्य आठ मूलगुण और रात्रिभोजन के निषेध का वर्णन किया है। आगे पाक्षिक श्रावक का आचार बतलाते हुए जैनधर्म की दीक्षा देने का भी विधान किया है। इतना ही नहीं नित्यपूजा का स्वरूप,
आष्टाहिक, इन्द्रध्वज और महापूजा का स्वरूप, जिनपूजा की सम्यक् विधि, जिनवाणी की पूजा का विधान, गुरुउपासना की विधि, दान देने का विधान, दान के अधिकारी, समदत्ति का विधान, जैनों को दान देने का महत्त्व, कन्यादान की विधि, विवाह विधि, साधर्मी की स्थापना करके पूजने का विधान, दयादत्ति का विधान, दिन में भोजन करने का विधान, व्रत का स्वरूप, व्रत ग्रहण आवश्यक, क्रिया, तीर्थयात्रादि करने का उपदेश इत्यादि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है।
तृतीय से लेकर पंचम अध्याय - इस तीन अध्यायों में नैष्ठिकश्रावक का कथन किया गया है। इनमें नैष्ठिक के ग्यारह भेद, मद्य आदि सप्तव्यसन त्याग की अनिवार्यता, श्रावक के उत्तरगुण, अहिंसादि पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का स्वरूप एवं उनके अतिचार आदि का विस्तृत विवेचन हुआ है। इसके साथ धर्म के विषय में पत्नी को शिक्षित करने का विधान, कुलस्त्री द्वारा पुत्र उत्पन्न करने का विधान, कुल स्त्री की रक्षा का विधान, वैद्यक शास्त्र के अनुसार पुत्रोत्पादन की विधि, अहिंसाव्रत को निर्मल रखने की विधि. स्वदारासन्तोषाणुव्रत स्वीकार की विधि, बहिरंगपरिग्रह त्याग की विधि, पौषध विधि, पात्रदान विधि, अतिथि को खोजने की विधि इत्यादि का भी उल्लेख हुआ है।
___षष्ठम अध्याय- इसमें श्रावक की दिनचर्या से सम्बन्धित जिनालय में प्रवेश करने की विधि, मध्याह में देवपूजा विधि, तदनन्तर पात्रदान की विधि, सायंकालीन कृत्य विधि आदि का विशेष प्रतिपादन किया गया है।
सप्तम अध्याय- इस अध्याय में सामायिक आदि दस प्रतिमाओं का विवेचन है। ग्यारहवीं उद्दिष्टत्यागप्रतिमा का वर्णन विस्तार पूर्वक किया गया है। इसमें सकलदत्ति की विधि, गृहत्याग की विधि, उद्दिष्ट विरत की विधि, प्रथमबार भिक्षा ग्रहण करने की विधि भी कही गई है।
अष्टम अध्याय- इस अन्तिम अध्याय में श्रावक का तीसरा भेद साधक श्रावक का विस्तृत वर्णन है। इसमें निर्देश है कि जो जीवन का अन्त आने पर प्रीतिपूर्वक शरीर और आहार आदि का ममत्व छोड़कर सल्लेखनापूर्वक प्राणत्याग करता है, वह साधक श्रावक कहलाता है।
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