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84/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
षट्स्थान प्रकरण का अपर नाम श्रावक वक्तव्यता है यह जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में विरचित है इसमें १०४ पद्य हैं। समग्र रचना छः स्थानकों में विभक्त हैं वे स्थान हैं - व्रत परिकर्मत्व, शीलवत्व, गुणवत्व, ऋजुव्यवहार, गुरू की शुश्रुषा तथा प्रवचन कौशल्या इसमें वर्णन है कि उक्त स्थानकों का विधिवत् पालन करने वाला उपासक उत्कृष्ट होता है। ये छ: स्थानक श्रावक की उच्च भूमिका पर आरूढ़ होने के लिए आवश्यक कहे गये हैं। . इस षट्स्थान प्रकरण पर १३ वीं शती में आ. जिनपति के शिष्य उपाध्याय जिनपाल ने १४६४ श्लोक परिणाम भाष्य लिखा है इससे इस ग्रन्थ की महत्ता कई गुणा बढ़ जाती है। इस ग्रन्थ ही हस्तलिखित प्रति जिनदत्तसूरि जैन भाण्डागार में सुरक्षित उपलब्ध है। हरिवंशपुराणगत-श्रावकाचार
हरिवंशपुराण आचार्य जिनसेन (प्रथम) की अप्रतिम संस्कृत काव्यकृति है। इसमें बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के त्यागमय जीवनचरित्र के साथ-साथ कृष्ण, बलभद्र, कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न, पाण्डवों और कौरवों का लोकप्रिय चरित्र भी बड़ी सुन्दरता से अंकित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस विशाल ग्रन्थ में सम्पूर्ण हरिवंश का परिचय तथा जैनधर्म और संस्कृति के विभिन्न आयामों का स्पष्ट एवं विस्तार से विवेचन हुआ है। भारतीय संस्कृति और इतिहास की बहुविध सामग्री इसमें भरी पड़ी है। 'हरिवंशपुराण' मात्र कथा-ग्रन्थ नहीं है, यह उच्चकोटि का महाकाव्य भी है। यह ग्रन्थ ६६ सगों एवं विविध छन्दों में रचित' है। इसमें लगभग आठ हजार नौ सौ श्लोक हैं। यह कृति विक्रम की ८ वीं शती के मध्यकाल की है।
इस महाकाव्य के ५८ वें सर्ग में श्रावकधर्म का वर्णन दृष्टिगत होता है। वह वर्णन तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय को सामने रखकर तदनुसार ही किया गया प्रतीत होता है। भेद केवल इतना है कि इसमें पापों का स्वरूप पुरूषार्थसिद्धयुपाय के समान बताया गया है तथा रत्नकरण्डश्रावकाचार के समान गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों का स्वरूप कहा गया है, किन्तु आठ मूलगुणों का कोई उल्लेख नहीं किया है। ज्ञानानन्द-श्रावकाचार
यह पं. रायमल्ल द्वारा विरचित गद्य रचना है। इसमें उनेक अपने समय
'(क) इस ग्रन्थ का अनुवाद डॉ. पन्नालाल जैन ने किया है।
(ख) यह कृति सन् १६४४ में, 'भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली' से प्रकाशित हुई है।
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