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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/653 समावेश होता है। ये एक सौ चालीस भेद साधु की आचार विधि के अंग हैं। ७५ वें द्वार में चौदह कृतिकों (वन्दनविधि) के प्रकारों की चर्चा है। कृतिकर्म का तात्पर्यआचार्य आदि ज्येष्ठ मुनियों के वंदन से है। ६१ वें द्वार में स्थण्डिल भूमि कैसी होनी चाहिए, उसका विधान प्रतिपादित है। ६५ वें द्वार में साधु के लिए आहार सेवन की विधि का निर्देश है। उसमें कहा है कि मुनि के द्वारा भोजन करते समय स्वाद के लिए भोज्य पदार्थों का सम्मिश्रण करना, परिमाण से अधिक आहार करना, भोज्य पदार्थों में राग रखना, प्रतिकूल भोज्य पदार्थों की निन्दा करना और अकारण आहार करना निषिद्ध है। १०१ वें द्वार में साधु जीवन की मुख्य आधार शिला रूप चक्रवाल सामाचारी का विवेचन किया गया है। इस सामाचारी में दस प्रकार के नियमों एवं विधियों का पालन करना होता है। १०६ वें द्वार में मल-मूत्र के विसर्जन विधि का विवेचन है। ११२ वें द्वार में शय्यातरपिण्ड अर्थात् जिस गृहस्थ ने मुनि को निवास के लिए स्थान दिया है उसके यहाँ से भोजन ग्रहण करना निषिद्ध माना गया है। इसी क्रम में शय्यातर के प्रकार, शय्यातर के यहाँ से क्या-क्या ग्रहण किया जा सकता है उसकी विधि आदि का निर्देश है। ११५ वें द्वार से लेकर ११८ वें द्वार तक चार प्रकार के आहार की कल्प्याकल्प विधि का उल्लेख हआ है। इस सम्बन्ध में लिखा गया है कि जिस क्षेत्र में सूर्य उदित हो गया हो उस क्षेत्र से गृहीत अशन आदि ही कल्प्य होता है, शेष कालातिक्रान्त कहलाता है। दो कोस से अधिक दूरी से लाया गया भोजन-पानी क्षेत्रातीत कहलाता है। प्रथम प्रहर में लिया गया भोजन-पानी तीसरे प्रहर तक भोज्य होता है उसके बाद वे कालातीत हो जाते हैं और ऐसा भोजन साधु के लिए अकल्प्य है। १२८ वें द्वार में मुनियों के रात्रि जागरण विधि का विवेचन है। उसमें बताया गया है कि प्रथमप्रहर में आचार्य, गीतार्थ और सभी साधु मिलकर स्वाध्याय करें। दूसरे प्रहर में सभी मुनि और आचार्य सो जायें और गीतार्थ मुनि स्वाध्याय करें। तीसरे प्रहर में आचार्य जागृत होकर स्वाध्याय करें, और गीतार्थ मुनि सो जायें। चौथे प्रहर में सभी साधु उठकर स्वाध्याय करें। आचार्य और गीतार्थ सोये रहें, क्योंकि उन्हें बाद में प्रवचन आदि कार्य करने होते हैं। १२६ वें द्वार में जिस व्यक्ति (आचार्य या गीतार्थ मुनि) के सामने आलोचना की जा सकती है उसको खोजने (निश्रा प्राप्त करने की विधि बताई गई है। १३४ ३ द्वार में संलेखना सम्बन्धी विधि-विधान का विस्तृत विवेचन किया गया है। इनके अतिरिक्त और भी विधि-विधान संक्षिप्त रूप से कहे गये हैं। हमने इस कृति के एक पक्ष का ही स्पर्श किया है इसके विशिष्ट पक्षों का बोध करने के लिए तो इस कृति का अध्ययन करना ही आवश्यक होगा। निष्कर्षतः यह ग्रन्थ विधि-विधान की दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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