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________________ 652 / विविध विषय सम्बन्धी साहित्य चैत्यवन्दन के जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट भेदों का निरूपण किया है। दूसरे द्वार में गुरुवन्दन विधि एवं उसके दोषों का वर्णन हुआ है। पुनश्च इस द्वार में गुरुवन्दन के १६२ स्थान वर्णित किये गये हैं- मुखवस्त्रिका, शरीर और आवश्यक क्रिया इन तीनों में प्रत्येक के पच्चीस-पच्चीस स्थान बताये हैं। इनके अतिरिक्त स्थान सम्बन्धी छ, गुणसम्बन्धी छः वचन संबंधी छः, अधिकारी को वन्दन न करने सम्बन्धी पाँच, अनधिकारी को वन्दन करने सम्बन्धी पाँच और प्रतिषेध सम्बन्धी पाँच स्थान बताये हैं। इसी क्रम में अवग्रह सम्बन्धी एक, अभिधान सम्बन्धी पाँच, उदाहरण सम्बन्धी पाँच, आशातना सम्बन्धी तैंतीस वन्दना सम्बन्धी बत्तीस एवं कारण सम्बन्धी आठ ऐसे कुल १६२ स्थानों का उल्लेख हुआ है। इस चर्चा में मुखवस्त्रिका के द्वारा शरीर के किन-किन भागों का, कैसे प्रमार्जन करना चाहिए, इसका विस्तृत एवं रोचक विवरण है। इसी क्रम में गुरुवन्दन करते समय खमासमणासूत्र का किस प्रकार उच्चारण करना चाहिये और तथा उस समय कैसी क्रिया करनी चाहिए इसका भी इस द्वार में निर्देश है। प्रवचनसारोद्धार के तीसरे द्वार में दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणविधि तथा इनके अन्तर्गत किये जाने वाले कायोत्सर्ग एवं क्षमापना ( खमासमण ) विधि का विवेचन किया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि देवसिक-प्रतिक्रमण में चार, रात्रिक प्रतिक्रमण में दो, पाक्षिक में बारह, चातुर्मासिक में बीस और सांवत्सरिक में चालीस लोगस्स का ध्यान करना चाहिए। पुनः इसी प्रसंग में इनकी श्लोक संख्या एवं श्वश्वास की संख्या का भी वर्णन किया गया है। इस दृष्टि से दैवसिक प्रतिक्रमण में १००, रात्रिक में ५०, पाक्षिक में ३००, चातुर्मासिक में ५०० और वार्षिक में १००० श्वासोश्वास का ध्यान करना चाहिए । इसी अनुक्रम में गुरु से क्षमायाचना सम्बन्धी पाठ की संख्या का भी विचार किया गया है। चौथे द्वार में नवकारशी, पौरुषी आदि काल सम्बन्धी दस प्रकार के प्रत्याख्यान की चर्चा की गई हैं। साथ ही इसमें प्रत्याख्यान के कारण एवं प्रत्याख्यान ग्रहण विधि भी विवेचित है । दशवें द्वार में तीर्थंकरनामकर्म के उपार्जन हेतु जिन बीस स्थानकों की साधना की जाती है उनकी विधि वर्णित है । ६६ वें द्वार में चरणसत्तरी और ६७ वें द्वार में करणसत्तरी का विवेचन है। पंच महाव्रत, दस श्रमणधर्म, सत्रह प्रकार का संयम, दस प्रकार का वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियाँ, तीन रत्नत्रय, बारह तप और क्रोध आदि चार कषायों का निग्रह ये चरण सत्तरी के सत्तर भेद हैं। करण सत्तरी के अन्तर्गत सोलह उद्गमदोष, सोलह उत्पादनादोष, दस एषणादोष, पाँच ग्रासैषणादोष, पाँच समिति, बारह भावना, पाँच इन्द्रियों का निरोध, तीन गुप्ति का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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