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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/651 प्रवचनसारोद्धार 'प्रवचनसारोद्धार' नामक प्रस्तुत कृति' के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्रसूरि है। ये आम्रदेवसूरि के शिष्य एवं जिनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य थे। यह कृति १५७७ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है, साथ ही ७७१ संस्कृत श्लोक भी है। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। छन्दों की अपेक्षा से इसमें आर्या छन्द की प्रमुखता है। इस कृति का रचनाकाल वि.सं. की १२ वीं शती के उत्तरार्ध से लेकर १३ वीं शती का पूर्वार्ध है। प्रस्तुत कृति में विविध विषयों का संकलन हुआ है। प्रवचनसारोद्धार जैसा कि इस नाम से ही सूचित होता है कि इसमें प्रवचन अर्थात् जिनवाणी का सार भरा हुआ है। वस्तुतः यह संग्रह ग्रन्थ कहा जा सकता है। इसमें लेखक ने जैन विद्या के विविध आयामों को समाहित करने का अनुपम प्रयास किया है। यद्यपि इसके पूर्व आचार्य हरिभद्रसूरि (वि. ८ वीं शती) ने अपने ग्रन्थों अष्टक, षोड़शक, विंशिका, पंचाशक आदि में जैन धर्म, दर्शन और साधना के विविध पक्षों को समाहित करने का प्रयत्न किया है, फिर भी विषय वैविध्य की अपेक्षा से ये ग्रन्थ भी इतने व्यापक नहीं है, जितना प्रवचनसारोद्धार है। इसमें २७६ द्वार हैं और प्रत्येक द्वार एक-एक विषय का विवेचन प्रस्तुत करता है। इस प्रकार प्रस्तुत कृति में जैन विद्या से सम्बन्धित २७६ विषयों का विवेचन है। इससे इसका बहुआयामी स्वरूप स्वतः सिद्ध हो जाता है। हम इस ग्रन्थ के समग्र द्वारों की विषयवस्तु का विवरण प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं केवल जो द्वार विधि-विधान या आचार-नियम प्रधान हैं उन्हीं का प्रतिपादन कर रहे हैं। यहाँ जानने योग्य है कि प्रवचनसारोद्धार का पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, छठा, १० वाँ, ६६ वाँ, ६७ वाँ, ७५ वाँ, ११५ वाँ, ११८ वाँ, १२८ वाँ, १२६ वाँ, १३२ वाँ, १३४ वाँ ये द्वार मुख्यतः विधि-विधान विषयक हैं। - इस ग्रन्थ के प्रथम द्वार में चैत्यवंदन विधि का विवेचन हुआ है। चैत्यवंदन के सम्बन्ध में दस त्रिक की चर्चा की गई हैं। इसके साथ-साथ स्तुति एवं वन्दन विधि का तथा द्वादश अधिकारों का भी विवेचन हुआ है। अन्त में चैत्यवन्दन कब और कितनी बार करना चाहिए ? आदि की चर्चा के साथ ' (क) यह ग्रन्थ सिद्धसेनसूरिकृत तत्त्वप्रकाशिनी नाम की वृत्ति के साथ 'देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्वार संस्था' ने दो भा. में अनुक्रम से सन् १६२२ और १६२६ में प्रकाशित किया है। दूसरे भा. के प्रारम्भ में उपोद्घात तथा अन्त में वृत्तिगत पाठों, व्यक्तियों, क्षेत्रों एवं नामों की अकारादि क्रम से सूची दी गई हैं। (ख) यह कृति हिन्दी भावानुवाद के साथ 'प्राकृत भारती अकादमी- जयपुर' से सन् १६६६ में प्रकाशित हुई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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