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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/561 वर्धमानविद्याकल्पः यह कृति प्रताकार में प्रकाशित है तथा अत्यन्त लघु है। इसमें विविध प्रकार की वर्धमान विद्याओं एवं उनकी साधना विधियों का उल्लेख किया गया है। इस कृति के प्रारम्भ में खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि रचित 'वर्धमान विद्या' का स्तवन दिया गया है वह प्राकृत के सत्रह पद्यों में निबद्ध है। इस स्तवन में जिनप्रभसूरि की आम्नायानुसार वर्धमान विद्या की साधना विधि एवं उसकी महिमा का वर्णन किया गया है। शेष कृति संस्कृत गद्य में हैं और वाचकचन्द्रसेन द्वारा उद्धृत वर्धमानविद्याकल्प से सम्बन्धित है। इसमें सर्वप्रथम वर्धमान विद्या की साधना प्रारम्भ करने के पूर्व करने योग्य १० चरण बताये गये हैं वे ये हैं- १. भूमिशुद्धि २. अंगुलीन्यास ३. मंत्रस्नान ४. कल्मषदहन ५. हृदयशुद्धि ६. दोनों हाथों की अंगुलियों में अर्हदादि का न्यास ७. हृदय, कंट, तालु आदि स्थानों पर शून्य पंचक न्यास ८. 'कुरु, कुल्ला' से रक्षा कवच का विधान ६. समान्य अर्घ का विधान और १०. मंडलोद्घाटन। इसके साथ ही वर्धमान विद्या का १०८ बार जाप करने सम्बन्धी निर्देश हैं तथा प्रस्तुत विद्या की साधना में बहुशः प्रयुक्त होने वाली आहान आदि छह मुद्राओं के स्वरूप का निरूपण हैं। इसके पश्चात् वज्रस्वामिकृत तीन प्रकार की वर्धमान विद्या एवं उसकी जाप विधि दी गयी है। तदनन्तर भिन्न-भिन्न अम्नाय की अपेक्षा लगभग नौ प्रकार की वर्धमानविद्या का उल्लेख हुआ है। इनकी साधनाविधि, एवं इनसे साधित मन्त्रों के प्रभाव का भी निरूपण किया गया है। स्पष्टतः यह कृति लघु होने पर भी वर्धमानविद्या और उसकी साधनाविधि की विशद सामग्री प्रस्तुत करती हैं। इसमें वर्णित विद्याएँ मुख्य रूप से वाचनाचार्यउपाध्याय एवं प्रवर्तिनी पदधारियों के लिए साधने योग्य हैं चूंकि वर्धमान विद्या का पट्ट इन पदधारियों को ही दिया जाता है। ____ इस कृति के रचनाकार कौन है? इसकी हमें जानकारी नहीं मिली है इसके अन्त में इतना मात्र सूचन हैं कि यह कृति वि.सं. १८८१ में, आसोज शुक्ला ७ के दिन समाप्त हुई। विद्यानुवाद अंग इस ग्रन्थ का निर्देश भी हमें जिनरत्नकोश में मिलता है। यह हस्तिमल द्वारा रचित है इसका ग्रन्थाग्र १०५० निर्देशित हैं यह ग्रन्थ मूडविद्रि के भट्टारक चारुकीर्तिजी महाराज के निजी भण्डार की सूची में वर्णित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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