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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/621
बारहवाँ रत्न - यह विभाग जैन परम्परा से सम्बन्धित है। इसमें जिनेश्वर परमात्मा की मूर्ति का स्वरूप, चौबीस तीर्थंकरों, चौबीस यक्ष-यक्षिणीयों के स्वरूपादि, सोलह विद्यादेवियों का स्वरूपादि, समोसरण तथा सिंहासन का लक्षण, बैठी हुई या खड़ी हुई प्रतिमा का परिमाण, अंगुलमान से शुभाशुभ प्रतिमा का विचार, परिकर का लक्षण, गृहमंदिर में ध्वजा न रखने का विधान, वज्रलेप और उसके गुण इत्यादि का वर्णन किया गया है। तेरहवाँ रत्न - इस विभाग में मंडप विधान, मंडप भूमि का शोधन, दिकशोधन, वेदी का परिमाण, कुंड विधान, विभिन्न प्रकार के कुंड, मेखला लक्षण, मंडल विधान, प्रासाद के देवताओं का पूजन, द्वारोद्घाटन विधान, सूत्रधार का पूजन, आचार्य का पूजन, प्रासाद-प्रतिष्ठा का फल, जैन प्रतिष्ठा, ग्रह प्रतिष्ठा, वापीकूपादि की प्रतिष्ठा, वास्तुपूजन न करने से लगने वाले दोष, वास्तुदेवों के पूजन का विधान, वास्तुपूजन विधि, दिक्पालपूजन विधि आदि निरूपित है। चौदहवाँ रत्न - यह विभाग ज्योतिषविद्या से सम्बन्धित है। इसमें गृह प्रवेश मुहूर्त, प्रतिष्ठा मुहूर्त, शुभाशुभ तिथियाँ, शुभाशुभवार, प्रत्येक वार में करने योग्य कार्य, शुभाशुभ नक्षत्र, शुभाशुभ योग, शुभाशुभ भद्रा, चन्द्र का शुभाशुभ फल, ग्रहबल-चंद्रबल, लग्नकुंडली बनाने की विधि, राशि विचार, लग्नविचार, खातविधि, शिलास्थापना, द्वारस्थापना, स्तंभस्थापना, मोभस्थापना, आमलसार स्थापना आदि के समय देखने योग्य चक्र इत्यादि का प्रतिपादन हुआ है। इस द्वार में तिथिसंज्ञाचक्र, ग्रहचक्र, नक्षत्रकोष्ठक, करणचक्र, भद्राचक्र, ताराचक्र, राशि-लग्नचक्र, सिद्धियोगचक्र, योगचक्र, कुलिकादिचक्र, लग्नशून्यचक्र, तिथिशून्यलग्नचक्र, ग्रहों की उच्चादि राशि का चक्र, घटी-पल देखने का चक्र, नवांश चक्र, लग्न, होरा, द्रेष्काण आदि के कोष्ठक, ग्रह स्थापना का कोष्ठक, वृषभचक्र, कूर्मचक्र, वत्सचक्र, द्वार चक्र, स्तंभचक्र, घंटाचक्र, मोभचक्र, कलशचक्र, आहुतिचक्र आदि का विशेष उल्लेख हुआ है। इस कृति के अन्त में परिशिष्ट प्रकरण भी है जो सामान्यतया प्रतिष्ठा संबंधी विषय का उल्लेख करता है।
इस ग्रन्थ के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि ग्रन्थकार ने कृति के नाम के अनुरूप विषय वस्तु का विवेचन किया है। शिल्पकला के अभ्यासियों के लिए यह ग्रंथ अति-उपयोगी है। साथ ही प्रतिष्ठा कराने वालों और ज्योतिष में रूचि रखने वालो के लिए भी विशिष्ट उपयोगी है। यह कृति कई दृष्टियों से प्रशंसनीय बनी है। निःसन्देह यह ग्रन्थ भारतीय शिल्पकला एवं ज्योतिषकला में अपना सर्वाधिक स्थान रखता है।
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