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22/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
विधि विधान की आवश्यकता क्यों ?
जैन परंपरा में विधि-विधान या अनुष्ठान का अर्थ क्रिया, आचरण या सम्यक् प्रवृत्ति से है। यह उल्लेख्य हैं कि मात्र क्रिया का कोई महत्त्व नहीं रहता। ज्ञान पूर्वक की गई प्रवृत्ति ही फलदायी होती है। शास्त्रवचन भी है - "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" अर्थात ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है। मात्र ज्ञान या मात्र क्रिया से साधना का विकास नहीं होता है साधना के शिखर को छूने के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों का होना अनिवार्य है।
जगत की प्रत्येक वस्तु ज्ञान एवं क्रिया पूर्वक ही संचालित होती है। जैसे शरीर दर्शाता है आँख से देखों और पॉव से चलो तभी इष्ट स्थान पर पहुँच सकते हो। यहाँ आँख ज्ञान रूप है, और पाँव क्रिया रूप है। शास्त्रों में कहा गया हैं, कि ज्ञान और क्रिया एक ही रथ के दो पहियें हैं इनमें से एक भी ढ़ीला पड़ जाये तो आत्मा रूपी रथ मुक्ति के मार्ग पर सम्यक् प्रकार से चल नहीं सकता है।
क्रिया रहित केवल ज्ञान निष्फल है जैसे - मार्ग को जानने वाला पथिक गति क्रिया किये बिना वांछित स्थल पर नहीं पहुंच सकता है वैसे ही शास्त्रों को जानने वाला साधक यदि सामायिक, प्रतिक्रमण पूजन आदि क्रियाएँ (आचरणा) नहीं करता है तो मोक्ष मार्ग को उपलब्ध नहीं कर सकता है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि'सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणिमोक्षमार्गः' अर्थात् सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र (आचरण-क्रिया) ये तीनों मिलकर ही मोक्षमार्ग के साधन बनते हैं। अकेला सम्यग्ज्ञान या अकेला सम्यग्चारित्र मोक्ष का साधन नहीं बन सकता है। कहा भी गया है -
क्रिया बिना ज्ञान नहीं कबहु क्रिया ज्ञान बिनुं नाहीं क्रिया ज्ञान दोउ मिलत रहत है
ज्यों जलरस जलमांहि __ आवश्यकनियुक्ति' यह भी उल्लेख हैं कि यदि आचरण विहीन अनेक शास्त्रों का ज्ञाता भी संसार समुद्र से पार नहीं हो सकता है। जिस प्रकार निपुण चालक भी वायु की गति के अभाव में जहाज को इच्छित किनारे पर नहीं पहुंचा सकता है उसी प्रकार ज्ञानी आत्मा भी तप संयम रूप सदाचरण के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं
' आवश्यकनियुक्ति - गा. ६५-६८
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