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________________ 330/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य सातवाँ उद्देशक- इस उद्देशक में भी मैथुन विषयक क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है और उन क्रियाओं से लगे दोषों की शुद्धि के लिए गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान बतलाया है। वे दोषयुक्त क्रियाएँ निम्न हैं - मैथुन की अभिलाषा से तृणमाला, दंतमाला, शंखमाला, पुष्पमाला आदि बनाना, रखना एवं धारण करना, लौह, ताम्र, रौप्य, सुवर्ण आदि का संचय एवं उपभोग करना, हार, अर्घहार, एकावली, मुक्तावली, रत्नावली, कुंडल, मुकुट, सुवर्णसूत्र आदि बनाना एवं धारण करना, चर्म से विविध प्रकार के वस्त्र बनाना एवं धारण करना, सुवर्ण के विविध जाति के वस्त्र बनाना एवं धारण करना, रागात्मक भाव पैदा करने वाले स्थानों को हिलाना या मसलना, पशु-पक्षी के पाँव, पंख, पूँछ आदि गुप्त अंग में लगाना, पशु-पक्षी को स्त्री रूप मानकर उसका आलिंगन, चुम्बन करना, मैथुनेच्छा से किसी को आहारादि देना, शास्त्र पढ़ाना, वाचना देना इत्यादि। आठवाँ उद्देशक- यह उद्देशक भी गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है। इसमें बताया गया है कि जो साधु धर्मशाला आदि में अकेली स्त्री के साथ रहता है, स्वाध्याय करता है, रात्रि अथवा संध्या में स्त्रियों से घिरा हुआ लम्बी-चौड़ी कथा कहता है, स्वगण या परगण की साध्वियों के साथ विहार करता है, अपने स्वजनों के साथ रहता है, साथ विहार करता है, राजा आदि द्वारा विशेष तौर पर तैयार किया गया आहारादि ग्रहण करता है, राजा की हस्तिशाला, गजशाला, गुह्यशाला, मैथुनशाला आदि में जाकर आहारादि ग्रहण करता है, राजा द्वारा दीन-दुखियों को दिये जाने वाले आहार में से किसी प्रकार की सामग्री ग्रहण करता है तो उसे गुरुचातुर्मास का प्रायश्चित्त लगता है। नौवाँ उद्देशक - इस उद्देशक में भी उन उन दोष प्रधान क्रियाओं का वर्णन हैं जिनका सेवन करने पर गुरु चातुर्मास का प्रायश्चित्त आता है। निम्नलिखित क्रियाएँ गुरुचातुर्मास प्रायश्चित्त के योग्य हैं - राजपिण्ड ग्रहण करना, राजा के अन्तःपुर में प्रवेश करना, राजा के द्वारपाल आदि से आहारादि मंगवाना, राजा के यहाँ तैयार किये गये भोजन के चौदह भागों में से किसी भी भाग का आहार ग्रहण करना, नगर में प्रवेश करते समय अथवा बाहर जाते समय राजा को देखने का विचार करना, राजा के निवास-स्थान के आस-पास स्वाध्याय आदि करना, 'चौदह भा. ये हैं - १. द्वारपाल का भा. २. पशुओं का भा., ३. भृत्यों का भा., ४. बलि का भा., ५. दास-दासियों का भा., ६. घोडों का भा., ७. हाथियों का भा., ८. अटवी आदि को पार कर आने वालों का भा., ६. दुर्भिक्ष पीडितों का भा., १०. दुष्काल पीड़ितों का भा., ११. भिखारियों का भा. १२. रोगियों का भा., १३. वर्षा के निमित्त दान करने का भा. और १४. अतिथियों का भा.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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