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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/191
१३. विद्यारंभ-संस्कार विधि- यह संस्कार बालक को विधिपूर्वक विद्याध्ययन करवाने से सम्बन्धित है। प्रस्तुत कृति में इस संस्कार को प्रारंभ करने के लिए शुभ दिन-वार- नक्षत्रादि का उल्लेख किया गया है। साथ ही विद्याध्ययन का आरंभ करने में वर्जित तिथियाँ भी बतायी गई हैं। इस ग्रन्थ के अनुसार यह संस्कार सम्पन्न करने के लिए बालक को सर्वप्रथम जिनालय के दर्शनादि करवाते हैं, उसके बाद उपाश्रय में विराजित साधु या साध्वी के दर्शन-वंदनादि करवाते हैं, उसके बाद यतिगुरू के समीप ले जाते हैं, तत्पश्चात् पाठशाला में प्रविष्ट करते हैं। पूर्वोक्त सभी स्थलों पर कुछ विधि-विधान भी सम्पन्न किये जाते हैं।
१४. विवाह-संस्कार विधि- प्रस्तुत ग्रन्थ में विवाह संस्कार की चर्चा करते हुए अनेक बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है। सर्वप्रथम इसमें कहा गया है कि जिनका कुल और शील समान हों, उनमें ही परस्पर विवाह सम्बन्ध करना चाहिए। विकृत कुलवाली कन्या के साथ विवाह नहीं करना चाहिए। विकृत कुल आदि के लक्षण भी कहे गये हैं। यदि दोनों के कुल विकृत हों तो पाँच शुद्धियों को देखकर विवाह करने का प्रतिपादन है। विवाह कब करना चाहिए इस संबंध में उसके उम्र का भी निर्देश किया गया है। इसके साथ ही आठ प्रकार के विवाहों का निरूपण किया गया है उनमें १. ब्राह्म २. प्रजापत्य ३. आर्ष और ४. देवता इन चार प्रकार के विवाह को प्रशस्त माना गया है क्योंकि ये विवाह माता-पिता की इच्छानुसार होते हैं जबकि १. गांधर्व २. आसुरी ३. राक्षस एवं ४. पैशाच ये चार प्रकार के विवाह अप्रशस्त (पापरूप) माने गये हैं, चूंकि ये चारों विवाह स्वेच्छानुसार होते हैं।
इस संस्कार में प्रस्तुत विषय के अतिरिक्त निम्नविधियों का भी सम्यक् निरूपण किया गया है- यथा १. कन्यादान करने की विधि २. कुलकर स्थापना की पूजा विधि ३. बारात प्रस्थान करने की विधि ४. तोरण द्वार पर करने योग्य विधि ५. चँवरी (वेदी) निर्मित करने की विधि ६. चार प्रदक्षिणा (फेरे) विधि ७. कंकण मोचन विधि ८. वर-वधू विसर्जन विधि ६. कुलकर विसर्जन विधि १०. वेश्या विवाह विधि इत्यादि।
__विवाह से पूर्व दोनों पक्षों में अनेक क्रियाएँ की जाती हैं उसका भी निर्देश किया गया है। कृति के अन्तर्गत इन संस्कार सम्बन्धी क्रियाओं को सम्पन्न करने में देश एवं कुलाचार को विशेष महत्त्व दिया गया है।
१५. व्रतारोपण संस्कार विधि- इस ग्रन्थ में व्रतारोपण संस्कार विधि का उल्लेख करते हुए सर्वप्रथम सम्यक्त्वव्रत ग्रहण करने की विधि कही गई है। इस विधि के अन्तर्गत व्रतारोपण कराने वाले गुरु के लक्षण, व्रतग्राही के इक्कीस गुण,
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