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148/षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य
भी एक वृत्ति लिखी गई थी। श्री अकलंकदेव द्वारा 'पदपर्यायमंजरी' नामक वृत्ति है। खरतरगच्छीय जिनहर्षसूरि ने भी वि.सं. १५२५ में वृत्ति लिखी है। इस ग्रन्थ पर तपागच्छीय रत्नशेखरसूरि ने भी टीका लिखी है। इसकी एक वृत्ति शिवप्रभसूरि के शिष्य तिलकसूरि की है। एक वृत्ति गर्गर्षि द्वारा रचित है। इस पर उदयराज ने ३१०० श्लोक परिमाण वृत्ति लिखी है। अवचूरि- प्रस्तुत ग्रन्थ पर रचित दो अवचूरियों की सूचना मिलती है। उनमें से एक अवचूरि कुलमंडन मुनि द्वारा रचित है तथा दूसरी अवचूरि अज्ञातकर्तृक है। बालावबोध- शाहजाकीर्ति ने वि.सं. १७१४ में एक बालावबोध लिखा है।
उपर्युक्त वृत्तियाँ-चूर्णियाँ आदि के नामोल्लेख मात्र से यह स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत कृति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी के प्रतिक्रमणसूत्र
यह कृति' प्राकृत, प्राचीन गुजराती एवं हिन्दी मिश्रित भाषा में है। इसमें स्थानकवासी परम्परा में प्रवर्तित प्रतिक्रमण विधि का क्रमपूर्वक निरूपण किया गया है। इनकी प्रतिक्रमण विधि में १. प्रतिक्रमण स्थापना का पाठ, २. ज्ञानातिचार का पाठ, ३. दर्शन (सम्यक्त्वरत्न) का पाठ, ४. चतुर्विंशतिस्तव का पाठ, ५. पन्द्रह कर्मादान सहित श्रावक के बारह व्रतों और उनके अतिचारों का पाठ, ६. अठारह पापस्थानक आदि के पाठ प्रमुख रूप से बोले जाते हैं।
इस कृति के अन्त में पौसह विधि, देशावकाशिक पौषध ग्रहण करने एवं पारने की विधि, प्रतिपूर्ण पौषध ग्रहण करने एवं पारने की विधि, विविध प्रत्याख्यान पारने की विधि, संवर प्रत्याख्यान की विधि इत्यादि का भी उल्लेख हुआ है। प्रतिक्रमणहेतु
___यह रचना खरतरगच्छीय क्षमाकल्याणगणि की है। इस कृति में प्रतिक्रमण पाठों के क्रम का हेतु एवं प्रतिक्रमण की विधियों के हेतु बताये गये हैं, ऐसा कृति नाम से भी स्पष्ट होता है। हरिसागरगणि भंडार जयपुर की हस्तप्रत सूची में इसका नाम है। प्रतिक्रमणनियुक्ति
यह ६१ गाथाओं में भद्रबाहु द्वारा विरचित है।
' (क) यह पुस्तक सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, बापू बाजार, जयपुर से प्रकाशित है।
(ख) यह वि.सं. २०३७ में अजमेर से भी प्रकाशित हुई है। २ देखें, जिनरत्नकोश पृ. २५६
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